ग़ज़ल
फिर वही गुनाह किए जा रहा हूँ मैं,
मरने की आरज़ू में जिए जा रहा हूँ मैं
हो जाओगे बदनाम तुम ये खुल गए अगर,
होंठों को बार-बार सिए जा रहा हूँ मैं
प्यास ये कैसी है कि बुझती ही नहीं जो,
आँसू हों या शराब पिए जा रहा हूँ मैं
सदियों तलक दोहराती रहेगी जिसे दुनिया,
इक ऐसी दास्तान दिए जा रहा हूँ मैं
अब आखरी सफर में यही काम आएँगी,
सबकी दुआएँ साथ लिए जा रहा हूँ मैं
— भरत मल्होत्रा