ग़ज़ल
वफ़ा को ढूँढने शाम–ओ–सहर गयी हूँ मैं
राक़िबे-वक्त हो हर इक डगर गयी हूँ मैं
कोई भी बज़्म न कर पायी मुतमईयन मुझे
तुम्हारे दर पे ही आकर ठहर गयी हूँ मैं
निगल न जाएँ अँधेरे कहीं तद्दबुर को
चराग़–ए–अज्म की लौ सी बिखर गयी हूँ मैं
बिछड़ के तुम से मैं जी पाऊंगी भला कैसे
यह सोच कर तिरी क़ुर्बत से डर गयी हूँ मैं
जो देखी इश्क़ में ग़ैरत की मैं ने नीलामी
फ़रेब–ए– इश्क़ से पहले सुधर गयी हूँ मै
चमन में उर्दू के जाकर मुझे महसूस हुआ
अदब की मीठी सी ख़ुशबू के घर गयी हूँ मैं
वो सच्चे “ प्रेम” की मंज़िल को ढूढने के लिए
हर एक गाओं, गली और नगर गयी हूँ मैं
(1 शाम-ओ-सहर = शाम और सुबह 2 राकिबे-वक्त= समय की रक़ाब 3 बज़्म= मह्फ़िल 4 तद्दबुर= कोशिशें 5 चराग़-ए-अज्म = हिम्मत का दीप 6 क़ुर्बत= नजदीकी 7 फ़रेब-ए- इश्क़= इश्क़ में धोखा 8 चमन = बाग़)
— प्रेम लता शर्मा