बाल-कविता : जंगल की व्यथा
एक बार की बात सुनो,जंगल में पड़ा अकाल,
भूख प्यास से तड़पे सारे,हाल हुआ बेहाल,
एक- एक कर ,सूखे सारे ताल -तलैया,नाले,
संकट की इस घड़ी में बोलो, किसको कौन संभाले,
किसी ने जाकर राजा को , जब ये बात बताई,
झट राजा ने महल में अपने सभा एक बुलवाई,
देख प्रजा की ऐसी हालत राजा भी घबराया,
पूछा सबसे बोलो ऐसा संकट कैसे आया,
सब को यूं खामोश देखकर बोला बंदर ज्ञानी,
जाने कहाँ से आकर मानव, करे यहाँ मनमानी,
चिड़िया भी आंखो मे अपनी, आंसू भरकर बोली,
पेड़ कटा और,गिरा घोंसला, हो गई मैं भी बेघर,
कितने हिरन मार दिए, और काटे हाथी दांत,
पशुओं के घर में ये मानव, चला रहें है राज,
अपने महल बनाने को, पेड़ो को काट रहे है,
डरे- डरे जंगलवासी , जंगल से भाग रहे है,
शेर ने झट, पाकेट से अपनी, अपना फोन निकाला,
मुझसे आकर बात करे, जो है कोई हिम्मतवाला
यूं तो मानव बनते हो, पर ज़रा सुनो भी मन की,
परवाह अपने, साथ-साथ ही, करो ज़रा मेरे वन की,
छेड़छाड़ ना करो, प्रकृति से, वरना पछताओगे,
बिन पेड़ो के और हमारे, तुम भी मर जाओगे।।
— असमा सुबहानी
बहुत सुन्दर काव्यमय चेतावनी ..
प्रिय सखी असमा जी, वाह! बंदर ने फोन निकाला. अति सुंदर व सार्थक रचना के लिए आभार.
वाह …. बढियाँ
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