ग़ज़ल
सुकून-ओ-चैन क्या पता किधर चले गए,
अपनों की दुआओं से भी असर चले गए
खुद फरिश्तों को भी नाज़ होता था जिन पे,
कौन सी दुनिया में वो बशर चले गए
सड़क के बीचों-बीच मैं तड़पता ही रहा
सारे लोग अपने – अपने घर चले गए
कहते थे जो कि साथ निभाएंगे उम्र भर,
इधर चले गए तो कुछ ऊधर चले गए
मुसलसल सी तीरगी है ज़िंदगी में तेरे बाद,
तेरे साथ मेरे शाम और सहर चले गए
उदास हैं अब गांव के सब साएदार पेड़,
छाँव में बैठते थे जो शहर चले गए
— भरत मल्होत्रा