ग़ज़ल
मेरे जिस्म में तू बन के जान रहता है,
मिलूँ किसी से भी तेरा ध्यान रहता है
मेरे वजूद में शामिल है इस तरह से तू,
दरिया के सीने में जैसे तूफान रहता है
जानता हूँ कि तू कभी नहीं आने वाला,
तू लौट आएगा फिर भी गुमान रहता है
यकीन इतना है तुझपे मुझे मेरे हमदम,
खुदा पे जैसे किसी का ईमान रहता है
ना कर गुरूर कि गुरूर यहां जिसने किया,
उसका बाकी ना कुछ नाम-ओ-निशान रहता है
— भरत मल्होत्रा