ग़ज़ल
वक्त-ए-आखिर तुझमें मुझमें फर्क क्या रह जाएगा
ना रहेगा कोई छोटा, ना बड़ा रह जाएगा
काम आएँगी वहां बस अपनी-अपनी नेकियां
मान-इज़्ज़त महल-दौलत सब पड़ा रह जाएगा
सीख लूँ खुदगर्ज़ियाँ मैं भी ज़माने से मगर
इंसानियत से फिर क्या मेरा वास्ता रह जाएगा
फर्क ही इतना बड़ा है तेरे मेरे दरमियाँ
लाख कोशिश कर लूँ फिर भी फासला रह जाएगा
हम चले जाएँगे फिर ना होंगी ऐसी रौनकें
दरबार चाहे आपका यूँ ही सजा रह जाएगा
गज़ल कहते उम्र सारी बीती पर लगता है यूँ
कुछ तो है दिल में मेरे जो अनकहा रह जाएगा
— भरत मल्होत्रा