ग़ज़ल
हक में बेकसूरों के गवाही कौन पढ़ता है
यहां चेहरों पे लिक्खी बेगुनाही कौन पढ़ता है
यहाँ अखबार बिकते हैं चंद तस्वीरों की खातिर
ये कागज़ पर जो फैली है स्याही कौन पढ़ता है
बिना दस्तक चले आते हैं दिल में अजनबी अक्सर
लिखी भी है तो आने की मनाही कौन पढ़ता है
उलझा है यहाँ हर कोई अपनी-अपनी फिक्रों में
हालते-मुल्क पर मेरी आगाही कौन पढ़ता है
अब तो अपनी सहूलत के लिए फतवे निकलते हैं
तेरा अब हुक्मनामा या इलाही कौन पढ़ता है
नाफरमानियां शामिल हैं फितरत में हमारी तो
होगा फरमान तेरा शहंशाही कौन पढ़ता है
शहर के लोग हैं मसरूफ सब पैसा कमाने में
दुआ-ओ-नीमशब-ओ-सुबहगाही कौन पढ़ता है
— भरत मल्होत्रा