चुनौती स्वीकारो, तो साहस आ ही जाता है
बात 1966 की इन्हीं दिनों की है. मैंने एम.ए. हिंदी में राजस्थान यूनिवर्सिटी में प्रवेश लिया. मैं एक स्कूल की फाउंडर प्रिंसिपल थी, इसलिए मैंने एम.ए. में कैजुअल प्रवेश लिया. हमारे पिताजी ने बचपन से ही सिखाया था, कि परीक्षा में सबसे मुश्किल प्रश्न को सबसे पहले हल करना चाहिए. यही बात हमने प्रवेश के समय पेपर चुनने पर लागू की. हमने राजस्थानी भाषा डिंगल, जो अक्सर विद्यार्थी दूसरे साल में लेते हैं, पहले ही साल में ले ली. साइकिल के उस ज़माने में मैं स्कूल घर के पास होने पर भी साइकिल ले जाती थी और वहीं से सीधी यूनिवर्सिटी चली जाती थी और जितनी कक्षाएं मिल पाती थीं, पढ़कर आती थी. अक्सर डिंगल की क्लास मिल जाती थी. पहले दिन प्रोफेसर जी ने पूछा,
”आप कौन-से ईयर में हैं, आपको पहले कभी यूनिवर्सिटी में नहीं देखा.”
”सर, फर्स्ट ईयर में.” मैंने कहा.
”फर्स्ट ईयर में? और आपने डिंगल ले ली? यह तो सब सेकंड ईयर में लेते हैं. आपने बहुत गलती की, आपका पास होना मुश्किल है.”
”सर, अब ले लिया है, तो ले लिया है, जो होगा, देखा जाएगा.” मेरे स्वर में स्वभावतः आत्मविश्वास झलक रहा था.
कहने वाले के लिए तो बात आई गई हो गई, लेकिन मेरे लिए यह चुनौती थी. इसी चुनौती के कारण डिंगल की वीर सतसई के सात सौ दोहे मुझे लगभग मौखिक याद हो गए थे. 20-20 नंबरों के 5 प्रश्नों वाले उस ज़माने में मैंने एक प्रश्न में 75 दोहे उद्धरित किए थे. जब नतीजा आया, तो इस पेपर में मेरे 83 अंक थे. दूसरे साल जब मुझे प्रोफेसर महाशय जी ने यूनिवर्सिटी में देखा, तो पूछा-
”आप डिंगल में पास हो गईं क्या?
”सर, पास तो हो गई हूं, 83 अंक आए हैं.” मैंने नम्रतापूर्वक कहा.
बाद में उन्होंने विभाग के कार्यालय जाकर डिंगल में सबसे अधिक अंकों का पता किया, सिर्फ़ मेरे ही 83 अंक आए थे. उन्होंने मुझे बुलाकर बताया और बधाई दी देते हुए एक प्रश्न किया-
”मुझे याद है, मैंने आपको कहा था- ”आपका पास होना मुश्किल है, आप उससे घबराई नहीं?”
”सर, घबराना कैसा! वह तो मेरे चुनौती थी. हमारे पिताजी कहा करते हैं, चुनौती स्वीकारने वाले के आसपास साहस मंडराता रहता है, उसकी कभी हार नहीं होती. बस, उसी गुरुमंत्र के कारण मेरी नौका पार हो गई.”
”शाबाश” कहकर प्रोफेसर महाशय जी अपनी कक्षा लेने चले गए और मैं अपनी कक्षा में पढ़ने.
नमस्ते एवं हार्दिक धन्यवाद आदरणीय बहिन जी। आज आपकी जीवन कथा का यह स्वर्णिम पृष्ठ पढ़कर अत्यन्त हर्ष हुआ। मुझे उन मध्यकालीन समाज के ठेकेदारों की बुद्धि पर भी तरस आया जिन्होने मध्यकाल में हमारी माताओं और बहिनों को वेदाधिकार से च्युत कर दिया था। यदि ऐसा ना किया जाता तो शायद भारत कभी गुलाम न होता। आपके पिता को भी सादर प्रणाम है जिन्होने आपको यह महान शिक्षा व संस्कार दिए और आपने उसे चरितार्थ कर नया इतिहास रचा। एक बात और कहने का दिल कर आया। आपके पिता की ही तरह वेदों में ईश्वर ने हमे कहा है कि तुम सब मेरे अमृत पुत्र हो। ईश्वर का कोई पुत्र वा पुत्री दीन और हीन नहीं हो सकता। यह जो दीन और हीन बन्धु दिखाई देते हैं वह व्यवस्था के कारण है। भारत में जो सिस्टम है उसमे अशिक्षित और निर्धन कभी अपना अधिकार प्राप्त नहीं कर सकते। कुल दीन हीन लोगो में 5 से 10 प्रतिशत ही जीवन में उन्नति कर उन्नति कर पाते है। यदि हमारे अंदर यह विचार घर कर जाए कि हम ईश्वर पुत्र ही नहीं अपितु अमृत पुत्र है तो हम वह कर सकते हैं जो शायद इतिहास में आज तक किसी ने किया ही ना हो. सादर।
प्रिय मनमोहन भाई जी, आपने बिलकुल दुरुस्त फरमाया है. हम अमृत पुत्र-पुत्रियां ही हैं. अति सुंदर व सार्थक प्रतिक्रिया के लिए आभार.
लीला बहन , आप की तो सारी जिंदगी आगे बड़ते बड़ते गुज़री है .नैचुरल ब्रेनी पर्सन के लिए कुछ भी पड़ना मुश्किल नहीं होता . मुझे याद है हमारे साथ एक लड़का पड़ता था जिस का नाम रावल था .इतना ब्रेनी था की एक दफा पड़ा उसे याद रहता था लेकिन हम को याद करने में कुछ वक्त लगता था .यह लड़का मुश्किल से मुश्किल मैथ्स के सवाल झट से हल कर लेता था .
वैसे यह डिंगल क्या होता है , पहली दफा सुना है .
प्रिय गुरमैल भाई जी, डिंगल राजस्थानी भाषा का एक रूप होता है, दूसरा रूप पिंगल होता है. आप जिस बारीकी से अपनी आत्मकथा लिख रहे हैं, उससे आपके ब्रेनी होने का प्रमाण मिलता है. अति सुंदर व सार्थक प्रतिक्रिया के लिए आभार.
प्रिय गुरमैल भाई जी, डिंगल राजस्थानी भाषा का एक रूप होता है, दूसरा रूप पिंगल होता है. आप जिस बारीकी से अपनी आत्मकथा लिख रहे हैं, उससे आपके ब्रेनी होने का प्रमाण मिलता है. अति सुंदर व सार्थक प्रतिक्रिया के लिए आभार.