संस्मरण

मेरी कहानी 142

जीत से मिल कर मन बहुत प्रसन्न हुआ था। मिल कर हम ने वह सभी बातें कीं जो अपनी कहानी में मैं बहुत पहले लिख चुका हूँ , ख़ास कर उस बात पर तो हम बहुत हंसे थे जब हमारे कमरे का बल्व फ्यूज़ हो गया था और हम गुरु नानक इंजीनिरिंग वर्क्स फैक्ट्री के पीछे से उन के ऐडवर्टाइज़मेंट के बोर्ड पर से बल्व उतार कर लाये थे। जब जीत से मिल कर हम आये तो जीत के बड़े भाई मलकीत का भी मुझे टेलीफोन आया जो एक घंटे की दूरी पर ही रहता था और बोला, ” गुरमेल ! मुझे जरूर मिल कर जाना “, इस बात को यह सोच कर कि जीत और मलकीत दोनों भाईओं के तालुकात अच्छे नहीं थे, मैं सोच में पढ़ गया। मुझे पुरानी बात याद ताज़ा हो आई जब मलकीत की शादी हुई थी और हम मैट्रिक में पड़ते थे। जीत अपनी भाभी से खुश नहीं था और भाभी की आदतों के बारे में बताया करता था और अब कुंदी ने भी मुझे बता दिया था कि दोनों भाईओं के सम्बन्ध अच्छे नहीं थे।  शादी से पहले दोनों भाईओं में बहुत पियार होता था लेकिन अब सब कुछ बदल गया था। इन बातों को सोच कर मैंने मलकीत को मिलने का इरादा कैंसल कर दिया ताकि दोनों भाईओं के दरमयान कोई गलत फहमी ना हो जाए।

                  दूसरे दिन सुबह मज़े से उठे। कुंदी बहुत धार्मिक विचार रखता है। सुबह पहले उस ने जपुजी साहब का पाठ किया और फिर अरदास की। अब हम बातें करने लगे जो ज़्यादा सिआसत की थीं जिन में उस ने बाल ठाकरे के बारे में बहुत कुछ बताया कि उस के कहने से सारी मुंबई खड़ी हो सकती थी। इस से पहले मुझे बाल ठाकरे के बारे में कुछ भी पता नहीं था। फिर उस ने बताया कि तीन साल पहले 1992 में जिस दिन मुंबई स्टॉक एक्सचेंज पर बम्ब ब्लास्ट हुए थे तो सिर्फ एक घंटा पहले वह वहां पर ही था। इस घटना का कारण उस ने कुछ समय पहले बाबरी मस्जिद का डाह  देना बताया और उस समय मुंबई में बहुत फसाद हुए थे, यह भी एक कारण हो सकता था, बताया  । बातें करते करते हमारे आगे दही के साथ गर्म गर्म आलू वाले पराठे आ गए जिन को देखते ही भूख चमक उठी। मज़े से हम ने ब्रेकफास्ट लिया और चाय पीते पीते कुंदी ने आज का प्रोग्राम भी बता दिया कि आज हम कुंदी की बहु के घर जाने वाले थे और उन के परिवार से मिलना था। ब्रेकफास्ट ले कर हम बाहर आ गए और एक खाली प्लाट में आ कर सब्जिओं को देखने लगे जो कुंदी ने बीज रखी थीं। यह प्लाट कुंदी का ही था जो काफी बड़ा था और भविष्य में उस ने इस प्लाट पर एक इमारत खड़ी करने का प्लैन भी बताया। उस वक्त इस प्लाट में पिआज, बैंगन और शिमला मिर्च ही मुझे दिखाई दिए थे। चलते फिरते कुंदी ने काफी बातें बताईं जो याद तो नहीं लेकिन एक बात याद है कि कुंदी ने बताया था कि उस ने ऐक्टर रजिंदर कुमार की कोठी का नक्शा बनाया था और उस ने कुछ कुछ फिल्मों की शूटिंग के बारे में भी बताया जो अक्सर मुंबई में होती रहती हैं।
कुछ देर बाद सभी तैयार हो गए और घर से बाहर निकल कुंदी के समधी के घर की ओर चल पड़े। ऊंची नीची तंग गलिओं में होते हुए हम उन के घर पहुँच गए। छोटा सा घर था लेकिन बहुत साफ़ सुथरा था। कुंदी के समधी ने हाथ जोड़ कर नमस्ते बोला और निम्रता पूर्वक भीतर आने को कहा। यह एक सिन्धी परिवार था और उन की बोल चाल में पड़े लिखे और एक सभ्य्चारक  परिवार की खुशबू आ रही थी। भीतर आ कर हम बातें करने लगे जो कुछ खास याद नहीं लेकिन उन का खाना जो चाय के साथ था, अभी तक भूला नहीं। तरह तरह की थालियां, जिन में तले हुए चने, दालें और कई तरह के नमकीन पदार्थ थे, यह एक खूबसूरत सजाई हुई  चारपाई पर रखे हुए थे। मुझे नहीं पता कि उन का यह ढंग महमानों के स्वागत करने का ही ढंग था,या जगह की तंगी के कारण। चारपाई के चारों ओर खाली जगह पर हमे बैठने की बेनती  की गई। जब हम खाने लगे तो यह नमकीन इतने स्वादिष्ट लगे कि मुझ से रहा नहीं गया और पूछ ही लिया, ” भाई साहब ! यह तो बहुत स्वादिष्ट हैं, क्या घर ही बनाए या बाहर से आए हैं “, ” जी हमारे यहां तो यह सब घर ही बनाते हैं “, समधि  जी ने जवाब दिया। यह तो बात शुरू करने का एक ढंग ही था और संधि जी की भी झिझक दूर हो गई और दिल खोल कर बातें हुईं। ऐसे लगने लगा जैसे हम पहले से ही जानते थे। तकरीबन दो घंटे बिता कर हम घर आ गए।
कुलवंत और उस की बहन पुन्नी बहुत खुश थीं और वह अपनी बातें कर रही थीं और हम दोनों अपने स्कूल के ज़माने की। पुन्नी का सही नाम गुरदीप है लेकिन बचपन के दिनों में कुलवंत के पिता जी कभी पुणे में रहा करते  थे और यहीं उन का नाम पियार से पुन्नी पड़ गया था। अगली सुबह कुंदी का लड़का बिंदर गाड़ी ले कर आ गया। बिंदर ने किसी ऑफिस में जा कर अपनी अगली असाइनमेंट का पता करना था की उस ने कहां जाना था। बिंदर एक शिपिंग कम्पनी में काम करता था और उस की पोस्टिंग कभी किसी देश में होती, कभी कहीं। बिंदर ने मुझे कहा, ” मासड जी ! आप मेरे साथ चलो “, हम घर से बिंदर की सुज़ूकी में बैठ कर चल पड़े। यह सुज़ूकी काफी पुरानी लग रही थी और बिंदर इसे काफी तेज़ चला रहा। जब मौरीन ड्राइव पर हम तेज़ चल रहे थे तो आगे ट्रैफिक लाइट रैड्ड हो गई। काफी देर तक हम खड़े रहे, अचानक बिंदर बोला,” मासड जी ! ब्रेक पैडल सारा नीचे ही जा रहा है और बहुत सॉफ्ट लग रहा है “, मेरे मुंह से अचानक निकला, ” बिंदर ! मुझको ब्रेक फेल हो गए मालूम होते हैं, गाड़ी को यहां ही खड़ी कर दे, आगे नहीं जाना”। मैं और बिंदर गाड़ी से बाहर आ गए। गाड़ी करब के साथ ही थी। मैंने गाड़ी के नीचे झांका तो ब्रेक फ्लूयड  लीक हो रहा था। बच गए, मेरे मुंह से निकला। कुछ और आदमी नज़दीक आ गए और हमे बताया कि एक छोटी सी कार रिपेयर की  वर्कशॉप नज़दीक ही थी। बिंदर ने स्टीरिंग वील सम्भाला और हम सब गाड़ी को धक्का लगा के वर्कशॉप के नज़दीक ले आए।
पचीस तीस साल का एक लड़का हमारे पास आया जिसके हाथ गाड़ियों का काम करते हुए काले हो गए थे। जब हम ने उस को बताया तो वह गाड़ी के नीचे लेट गया एक लाइट बल्व से नुक्स ढूंढने लगा। जल्दी ही उस को पता चल गया और नीचे से बाहर आ कर बोला, ” ब्रेक पाइप बहुत रस्टी हैं  और एक पाइप फट गया है, आप बहुत किस्मत वाले हैं कि बच गए, वरना बहुत खतरनाक एक्सीडेंट हो सकता था, आप को मशवरा देता  हूं कि सभी  ब्रेक पाइप नए डलवा लो क्योंकि दूसरों का भी कोई भरोसा नहीं”, बिंदर ने उस को बोल दिया कि वह सभी पाइप बदल डाले। “दो घंटे में गाड़ी तैयार हो जाएगी” उस ने बोल दिया और हम सड़क पर आ के टैक्सी का इंतज़ार करने लगे। एक दो मिनट में ही एक टैक्सी आ गई और बिंदर ने उसे तेज़ चलने को बोला क्योंकि हम पहले ही काफी लेट हो चक्के थे। कुछ देर बाद हम एक मल्टी स्टोरी बिल्डिंग के आगे थे। सीढ़ियां चढ़ कर कर हम शायद चौथी मंज़िल पर जा पहुंचे, दफ्तर के बाहर कुछ और लोग भी फाइलें हाथ में लिए खड़े थे। कुछ देर बाद बिंदर भी दफ्तर में चले गया और दस मिनट में ही  बाहर आ गया। बिंदर ने बताया कि उस की अगली असाइनमेंट हॉंगकॉंग की थी। मुंबई से उस ने पहले दिली जाना था और दिली से प्लेन बदल कर हॉन्ग काँग के लिए रवाना होना था। हम घर आ गए और दूसरे दिन हम ने मुंबई की सैर का प्रोग्राम बना लिया। पुन्नी और उस की बहु ने बहुत से खाने बनाए जिस से  हम अपरिचित थे। पाओ भाजी जो वहां बहुत प्रचलित है, पुन्नी की बहु ने बनाई और साथ में पोहा भी बनाया। बहुत से और खाने भी बनाए जिन को कुलवंत ने उन से सीख लिए और लिख भी लिए जो अभी तक कुलवंत कभी कभी बनाती रहती है।
सभी खाने टिफनों में भर कर साथ ले लिए और घर से रवाना हो गए। बस पकड़ कर मौरीन ड्राइव पर पहुंच गए और समुंदर के किनारे किनारे चलने लगे। पेवमेंट काफी चौड़ी थी और सफाई इतनी कि मज़ा ही आ गया। मैंने कैमकॉर्डर निकाला और दूर दूर तक का सीन लिया। समुंदर के दूसरी ओर का सीन हॉन्ग कॉन्ग के नज़ारे जैसा दीख रहा था। कुछ देर यहां घूमने के बाद कुंदी हम को चपाटी ले आया। यहां तो खाने ही इतने थे कि हिसाब ही कोई नहीं था। हम ने गोल गप्पे खाने का मन बना लिया। रेहड़ी वाला बिजली की तेजी से गोल गप्पे भर भर सब को दे रहा था और हम भी गोल गप्पों पर ऐसे टूट पड़े थे जैसे मौत के मुंह में आए हों। गोल गप्पे खत्म करके कुंदी हमे नारियल पानी वाले की ओर ले गया। नीचे ही बहुत बढ़ा, हरे हरे नारियलों का ढेर लगा हुआ था। कुंदी ने उस को मलाई वाला नारियल देने को कहा। हमे कुछ मालूम नहीं था कि यह मलाई वाला नारियल कैसा होता है। जब नारियल वाले ने काट के हमे दिया तो वाकई नारियल के पानी में नरम नरम मलाई सी थी जो हमे बहुत अच्छी लगी। बहुत दफा हम ने बस पकड़ी और एक ट्रेन में भी सफर किया और मुंबई का बड़ा रेलवे स्टेशन देखा जिस में एक बहुत बड़ा क्लॉक लगा हुआ था और कुंदी ने बताया था की इस तरह के क्लॉक दुनीआ में चार ही हैं। कुछ देर बाद कुंदी हमे मुंबई स्टॉक एक्सचेंज के पास ले गया और बताया की बम्ब फटने से कुछ देर पहले ही वह वहां था।
अब हम थक चुक्के थे ,जल्दी ही हम गेट वे ऑफ इंडिआ के नज़दीक आ गए और ताज महल होटल की बिल्डिंग के पास घूमने लगे। कुछ देर बाद हम इंडिआ गेट के नज़दीक छत्रपति शिवा जी के स्टैचू के नज़दीक घास पर बैठ गए और टिफिन खोल कर खाने का मज़ा लेने लगे। कुछ आराम करके हम नज़दीक ही मिूजीअम में चले गए। भीतर फोटो लेने की मनाही थी लेकिन फिर भी मैंने दो फोटो ले ही लीं। जल्दी जल्दी हम बाहर आए और अब हम ने एलिफेंटा की गुफाओं को देखने जाना था। मैंने तो यह सब 1961  में देखा हुआ था, जिस का ज़िकर बहुत पहले मैं कर चुक्का हूं लेकिन कुलवंत ने यह देखा नहीं था। गेट वे ऑफ इंडिआ के साथ ही समुंदर में बहुत सी बोटें खड़ी थी और एक में हम सब बैठ गए। जल्दी ही बोट भर गई, बोट वाले ने इंजिन स्टार्ट किया, बोट चलने लगी और हम समुंदर का नज़ारा देखने लगे। मैं ने कैमकॉर्डर से, पहले बोट की विडिओ ली और फिर दूर दूर का नज़ारा रिकार्ड करने लगा। काफी देर बाद हमारी बोट टापू के किनारे जा लगी जिस को एलिफेंटा कहा जाता है। कुंदी ने बताया था कि यह एलीफेंटा नाम पुरतगेजों ने रखा था क्योंकि पहले मुंबई पुरतगेजों के कब्जे में ही था और क्योंकि इस आइलैंड पे बहुत से हाथिओं के बुत्त बने हुए थे तो पुरतगेजों ने अपनी भाषा में इस टापू को एलिफेंटा नाम दे दिया था।
बोट से उतर कर काफी दूर तक हम पैदल चलते रहे। इस रास्ते के दरमयान नैरो गेज की रेल की पटरी बिछी हुई थी और आगे जा कर एक छोटा सा पुराना रेल इंजिन पड़ा था जिस को बहुत जंगाल लगा हुआ था। लगता था किसी ज़माने में अंग्रेज़ों ने इस छोटे से टापू को एक टूरिस्ट प्लेस बनाया होगा और इस ट्रेन में बैठ कर लोग एलिफेंटा तक आते जाते होंगे । यह छोटा सा आइलैंड हमे बहुत सुंदर लगा। पहले हम को इस पहाड़ी के ऊपर जाने के लिए बहुत सी सीढ़ियां चढ़नी पड़ीं और चढ़ते चढ़ते सांस फूल गए, इन सीढ़ियों के दोनों तरफ छोटी छोटी दुकाने थीं। ऊपर पहुंच कर हम मूर्तिओं को देखने लगे जो एक ही चटान को काट कर बनाई गई थीं। मैंने यह सब विडिओ में रिकार्ड किया। ऐसी बहुत से केवज थीं और इन के बाहर बड़े बड़े बोर्ड लगे हुए थे, जिन पर चोला वंश के बारे में इतहास लिखा हुआ था, जिन के ज़माने में यह सब मूर्तिआं बनाई गई थीं।
हम ज़्यादा समय एलिफेंटा में नहीं रुके क्योंकि कुंदी को पता था कि एलिफेंटा से आखरी बोट पांच बजे चलती थी। मेरा नहीं खियाल कि हम ने वहां दो घंटे से ज़्यादा समय लिया होगा। जल्दी जल्दी हम उस जगह जा पहुंचे यहां से बोट गेट वे ऑफ इंडिआ की तरफ रवाना होती थी। जब हम पहुंचे तो बोट काफी भरी हुई थी लेकिन हमे जगह मिल गई। दस मिनट बाद ही बोट चल पड़ी और कुछ देर बाद गेट वे ऑफ इंडिआ पर पहुँच  गए। अब हमे कोई चिंता नहीं थी। मैंने कुछ फोटो ताज महल होटल, गेट वे ऑफ इंडिआ और छत्रपती सिवा जी की खींची। याद नहीं हम वापस ट्रेन में आए थे या बस में लेकिन हमारा यह दिन भी हमेशा एक यादगार ही रहेगा। हमारा मुंबई का टूर खत्म होने को था और एक दिन हम फिर जीत के घर जा पहुंचे। इस दफा उस ने एक ऐल्बम में स्कूल के दिनों की फोटो दिखानी शुरू कर दी। इन में दो फोटो हमे बहुत अच्छी लगीं, एक में मैं जीत और हमारा भुल्ला राई गांव का दोस्त अजीत, हम तीनों एक दूसरे के गले में बाहें डाल कर खड़े थे और एक, मेरी और जीत दोनों की थी और इस फोटो में जीत ने अपने सर पर मेरी पगड़ी रखी हुई थी। यह दोनों फोटो अब जीत की जालंधर वाली कोठी में रखी हुई है और यह हम ने उस वक्त देखी थीं जब मैं और कुलवंत 2001 में इंडिआ गए थे। मुम्बई के यह दिन पता ही नहीं चला, कब बीत गए .
एक दिन सुबह हम ने पांच वजे मुम्बई एअरपोर्ट पर पहुंचना था। जीत के छोटे भाई ने हमे कुंदी के घर से पिक अप्प कर लेना था और फिर सीधे एअरपोर्ट पर पहुंच जाना था। आज शाम हम ने बहुत बातें कीं और देर रात तक बैठे रहे। कुंदी ने तीन वजे सुबह का अलार्म सैट कर दिया और हम दूसरे दिन के सफर के इंतज़ार में कुछ घंटों के लिए सो गए। चलता. . . . . . . . . .

4 thoughts on “मेरी कहानी 142

  • Man Mohan Kumar Arya

    नमस्ते एवं धन्यवाद आदरणीय श्री गुरमेल सिंह जी। पूरी किस्त पढ़ी। आनंद आया। गोल गप्पे मुझे भी पसंद हैं। सप्ताह में दो या तीन बार खा लेता हूँ। आज भी इच्छा कर रही है। इस सुंदर जानकारी के लिए हार्दिक धन्यवाद। सादर।

  • लीला तिवानी

    प्रिय गुरमैल भाई जी, यह एपीसोड भी बहुत रोचक लगा. हमें भी मुंबई के सब नज़ारे याद आ गए. बहुत बढ़िया और मज़ेदार एपीसोड के लिए आभार.

  • लीला तिवानी

    प्रिय गुरमैल भाई जी, यह एपीसोड भी बहुत रोचक लगा. हमें भी मुंबई के सब नज़ारे याद आ गए. बहुत बढ़िया और मज़ेदार एपीसोड के लिए आभार.

    • धन्यवाद लीला बहन ,दरअसल मुम्बई वाकई बहुत सुन्दर शहर है, इच्छा थी एक बार फिर मुम्बई के नज़ारे देखने की लेकिन किस्मत में होगा तो जरुर वक्त निकालेंगे . आप ने तो मुम्बई बहुत दफा देखा होगा लेकिन मेरा तो दो दफा देखा हुआ ही भूलता नहीं है .

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