कविता : नयी सोच नया सवेरा
खुली पलक में ख्वाब बुनो,
और खुली आँख से ही देखो।
सपने चाँदनी रात में नहीं,
तप्त तपन की किरणों में बुनो।
तपना पड़ता है सूरज की तरह,
ख्वाब पूरे यूँ ही नहीं होते।
निशा के आगोश में,
सपनों के घरौंदे नहीं होते।
आगे बढ़ो बढ़ते चलो,
कोशिश करने वाले घायल नहीं होते।
कामयाबी के शिखर पर पहुंचने वाले,
दिल से कभी कायर नहीं होते।
जागते रहो कर्म करते रहो,
देखो न सपने बस सोते सोते।
प्रेरणा किसी को बना स्वयं तुम,
उदाहरण बन जाओ जाते जाते।
कर लो हौसलों को बुलन्द,
आएगी कामयाबी परचम लहराते।
समय को स्वर्ण सा कीमती समझो,
खर्च करो उसे डरते डरते।
जहाँ चाह नहीं वहाँ राह नहीं,
करो कामना सोते जागते।
मर न जाओ यूँ ही कहीं,
गठरी निराशा की ढोते ढोते।
अमर हुए हैं नाम जिनके,
वे भी थे इंसान हमारे जैसे।
जो लक्ष्य से कभी भटके नहीं,
किये मुकाम हासिल कैसे कैसे।
चाहें तो हम और आप,
दुनिया में क्या है जो नहीं कर सकते।
ला विचारों में बदलाव कर्म करो,
लक्ष्य करो तैयार समय के रहते।
यूँ ही नहीं ये अमोल जिन्दगी,
व्यर्थ गँवानी बस रोते रोते।
नयी सोच और नयी सुबह का,
करलो संकल्प अब हँसते हँसते।
— सुचि संदीप अग्रवाल
हौसले हो बुलन्द तो ईशा क्या नही कर सकता। बहुत ही सुंदर रचना।
वाह
आभार विभा जी