गीतिका/ग़ज़ल

“गज़ल”

 

रातों की रानी ने कैसी अलख जगाई है
चंचल कलियाँ भी मादक महक पिराई है
बागों का माली चंहके चंपा चमेली संग
रातरानी ने घूँघट पट को सहज उठाई है।।
मंद मंद माँद से निकलते हुए कुछ मणिधर
लिपटने को आतुर रातरानी भरमाई है।।
खतरों से खेले है चाह पंनग शिकारी सी
गफलत की झाड़ी में छाँह सरक उग आई है।।
हरी हरी डाली श्वेत पुष्प गुच्छ धारी ये
अल्हण सी डालियों के बीच में इतराई है।।
दिन में बीमार सी लगे है रातरानी बहुत
किसकी मजाल कहे छाई चंचल रुबाई है।।
लता बेसहारे की बोझिल बेसुध उलझन सी
चांदनी को देखी तो पसारे पंख आई है।।
देखो भी गौतम इन रातों की रौनक रीती
हरे कागज़ ने फर्स पर रातरानी उगाई है।।

महातम मिश्र, गौतम गोरखपुरी

*महातम मिश्र

शीर्षक- महातम मिश्रा के मन की आवाज जन्म तारीख- नौ दिसंबर उन्नीस सौ अट्ठावन जन्म भूमी- ग्राम- भरसी, गोरखपुर, उ.प्र. हाल- अहमदाबाद में भारत सरकार में सेवारत हूँ

2 thoughts on ““गज़ल”

  • सुचि संदीप

    वाह बहुत खूब

  • सुचि संदीप

    वाह बहुत खूब

Comments are closed.