वैदिक परिवार सुखी व श्रेष्ठ परिवार
ओ३म्
आदर्श परिवार और सन्तान सृष्टि के आरम्भ से ही मनुष्य समाज की प्राथमिक आवश्यकता रही है। हमें लगता है कि ईश्वर ने वेदों का जो ज्ञान दिया है उसमें इस बात को भी ध्यान रखा गया है और इसके सभी समाधान वेद में निहित है, ऐसा मानने के पर्याप्त आधार हैं। सभी मानते व जानते हैं कि आज हम हम वेदेां से कोसों दूर हैं। देश व विश्व की अधिकांश जनसंख्या ने तो वेदों का नाम भी नहीं सुना है। कुछ लोगों ने यदि सुना भी है तो उन्होंने वेदों को देखा नहीं है। देखने से हमारा तात्पर्य है कि वेदों की शिक्षाओं से वह सर्वथा अपरिचित व अनभिज्ञ हैं। वैदिक मान्यताओं व सृष्टि संवत् के आधार पर हम पाते हैं कि सृष्टि व मानव की उत्पत्ति को 1.96 अरब वर्ष हो चुके हैं। बहुत से लोग यदि इसे स्वीकार न भी करें तो रामायण एवं महाभारत तथा अन्य प्राचीन ग्रन्थों को देखकर यह तो माना ही जा सकता है कि सृष्टि व मानव की उत्पत्ति को हजारों व लाखों वर्ष व्यतीत हो चुके हैं। भारत से इतर पश्चिम व अन्य देशों का इतिहास दो व तीन हजार वर्ष ही का ज्ञात होता है। हमारे पास महाभारतकाल के बाद युधिष्ठिर जी से लेकर राजाओं की सूची है जिसमें उनके बाद भारत पर राज्य करने वाले राजाओं के नाम व उनके राज्य की अवधि वर्ष, माह व दिनों में दी हुई है। इससे भी अनुमान होता है कि महाभारत काल पांच हजार वर्षों से कुछ अधिक वर्ष पूर्व हुआ था। महाभारत काल में न तो हिन्दू, न क्रिश्चियन, और न मुस्लिम, बौद्ध व जैन धर्म-मत-पन्थ व सस्कृतियां थी। तब केवल एक और एक ही धर्म व संस्कृति वैदिक नाम की थी, ऐसा कह सकते है। यह धर्म व संस्कृति वेदों पर आधारित थी। यहां यह भी बता दें कि हिन्दू धर्मी कहा जाने वाला समुदाय पुराणों की रचना के बाद अस्तित्व में आया जिसमें बहुत सी बातें वेदों की भी हैं। पुराणों की रचना कोई बहुत अधिक प्राचीन नहीं है। अनुमान के आधार पर इन्हें बौद्ध व जैन मत के बाद अब से लगभग एक हजार पूर्व का ही माना जा सकता है। कहने का तात्पर्य यह है कि महाभारत काल व उससे पूर्व के हजारों व लाखों नहीं वरन् करोड़ों से अधिक वर्ष पूर्व से वैदिक धर्म व संस्कृति का एक छत्र राज्य भारत सहित समस्त विश्व पर रहा है। आज के संसार के सभी लोगों के पूर्वज महाभारत काल व उसके अनेक वर्षों बाद तक वैदिक धर्म के ही अनुयायी थे, यह सिद्ध होता है।
आवश्यकता आविष्कार की जननी होती है। मनुष्यों के सृष्टि में आविर्भाव के बाद परस्पर प्रेम व सहयोग की भावना के साथ कटुता व शत्रुता के भाव भी अवश्य उत्पन्न हुए होंगे परन्तु वैदिक व्यवस्व्था इतनी सक्षम थी कि उनका समाधान हमारे तत्कालीन ऋषि-मुनि व राजा मिलकर कर देते थे। इस लिए कोई ऐसा समय नहीं आया कि जब यहां वेद विरुद्ध किसी ग्रन्थ की रचना की गई हो और उसे धर्म माना गया हो। मानव धर्म शास्त्र के रूप में जो मनुस्मृति हमें प्राप्त है वह भी लगभग सृष्टि के आरम्भ से है जिसमें वेदों का समर्थन एवं यशोगान है। महर्षि दयानन्द ने परीक्षा करके वेदों को सब सत्य विद्याओं का पुस्तक बताया है। अनेक विद्वानों ने इसके पक्ष में ग्रन्थों की रचना कर इसे सत्य सिद्ध भी किया है। मनुस्मृति के प्रक्षिप्त श्लोकों को यदि वेद के सिद्धान्तों व मनुस्मृति की अन्तःसाक्षी के आधार पर निकाल दिया जाये तो जो शुद्ध मनुस्मृति बचती है वह आज भी उपयोगी व प्रासंगिक है। महर्षि दयानन्द ने सत्यार्थ प्रकाश आदि अपने अनेक ग्रन्थों में मनुस्मृति के श्लोकों का उद्धरण देकर उनकी महत्ता को सिद्ध किया है। उपलब्ध ज्ञान के आधार पर यही कहा जा सकता है कि सृष्टि के आरम्भ से महाभारत काल तक शासन और न्याय व्यवस्था का अधार वेद और मनुस्मृति आदि ग्रन्थ ही रहे हैं। इनके द्वारा ही हमारे ऋषि मुनि सभी समस्याओं का हल ढूंढ लिया करते थे और कहीं किसी प्रकार की कोई कठिनाई नहीं हुआ करती थी।
महाभारतकाल के बाद समय ने करवट ली। दिन पर दिन पतन होता गया और आज भी यह किसी न किसी प्रकार विद्यमान ही नहीं अपितु निरन्तर जारी है। सारा विश्व आज अशान्ति से भरा हुआ है। कोई दिन नहीं जाता जब कि स्थानीय स्तर सहित देश व विदेश में कहीं कोई अमानवीयता की अनेक घटनाओं की सूचनायें न मिलती हों। न केवल दो देशों में अच्छे संबंधों का अभाव दृष्टिगोचर होता है अपितु इसके साथ देश और समाज सहित परिवार भी आज परस्पर असहजता व अशान्ति जैसी समस्याओं से धिरे हुए हैं। यदि विश्व के लोग मिल कर आदर्श मनुष्य और आदर्श परिवार बना सकें तो संसार की प्रायः सभी समस्याओं का निराकरण हो जायेगा। यदि पूर्णतः नहीं होगा तो भी इसमें भारी कमी तो अवश्य ही आयेगी। अतः विचार कर यह जानना बहुत आवश्यक है कि मधुर पारिवारिक संबंध कैसे निर्मित हो सकते हैं? इसका एक सरल उत्तर यह है कि यदि हम अपनी जीवन शैली वेदों पर आधारित बना लें तो इस समस्या का समाधान हो सकता है। इसी को समाज में गौरव दिलाने के लिए हमारे महाभारतकालीन व इसके पूर्व के ऋषि एकजुट रहते थे और ईसा की उन्नीसवीं शताब्दी में यही काम अपने समय के वेदों के सर्वोच्च विद्वान व ऋषि स्वामी दयानन्द ने किया था। इसी के निमित्त उन्होंने आर्यसमाज की स्थापना की थी जिससे यह आन्दोलन जारी रहे और विश्व से सभी प्रकार के विवादों को दूर कर परस्पर प्रेम, मित्रता व सुख शान्ति को स्थापित किया जा सके
वेद क्या है? वेद वह ईश्वरीय ज्ञान है जो ईश्वर ने सृष्टि बनाकर मानव को उत्पन्न करने के बाद सृष्टि के आरम्भ में उत्पन्न प्रथम पीढ़ी के चार ऋषियों व अन्य उत्पन्न सभी मनुष्यों को कर्तव्य व अकर्तव्य सहित धर्म-अधर्म के निर्धारण हेतु दिया था। चार ऋषियों से यह ज्ञान ब्रह्मा जी व अन्य लोगों को प्राप्त हुआ और परम्परा से प्राप्त होते हुए स्वामी दयानन्द जी और आज हमें प्राप्त है। महर्षि मनु ने कहा है कि वेद सम्पूर्ण धर्म का मूल है। धर्म कर्तव्य व श्रेष्ठ व्यवहार को कहते हैं। वेद की शिक्षायें मनुष्य को श्रेष्ठ व सर्वगुण सम्पन्न बनाती है। इतिहास में श्री राम, श्री कृष्ण, श्री हनुमान, युधिष्ठिर जी सहित महर्षि दयानन्द जी को देखते हैं जिन्हें हम अपने समय की वैदिक शिक्षाओं की धारक जीवित मूर्तियां कह सकते हैं। यदि हम भी वेदाध्ययन करें और उनकी शिक्षाओं को धारण करें तो हम भी महानपुरुषों के समान बन सकते हैं। स्वामी दयानन्द ने अपने साहित्य में एक स्थान पर कहा है कि सभी मनुष्य विद्वान नहीं हो सकते परन्तु धार्मिक सभी हो सकते हैं। घार्मिक मनुष्य का अर्थ है सत्य गुणों को धारण किये हुए मनुष्य। ऐसा मनुष्य न तो कभी किसी पर अत्याचार करता है और यदि उस पर दूसरा कोई अन्याय व अत्याचार करता है तो वह उसका सुधार करता है और यदि नहीं सुधरता तो फिर उसके प्रति यथायोग्य व्यवहार करता है। वेदों में सबसे प्रीतिपूर्वक, धर्मानुसार यथायोग्य व्यवहार करने की शिक्षा है जिसे स्वामी दयानन्द ने आर्यसमाज के नियमों में स्थान दिया है। वेदों का स्वाध्याय व शिक्षाओं को जानकर आचरण करने पर मनुष्य प्रातः व सायं सृष्टिकर्ता ईश्वर के गुणों का ध्यान अवश्य करता है और अपने जीवन के दुर्गुणों को छोड़ने का व्रत भी लेता है। ईश्वर का ध्यान करने का तात्पर्य है कि ईश्वर के स्वरुप व उसके गुण, कर्म व सम्बन्धों पर विचार कर अपने गुण-कर्म-स्वभाव को ईश्वर के अनुरूप बनाना। यदि ऐसा नहीं करता तो उसका वेदाध्ययन करना व्यर्थ है।
वेदाध्यायी मनुष्य प्रातः व सायं दैनिक अग्निहोत्र भी अवश्य करता है। इससे वायु व जल की शुद्धि सहित मन, मानसिक विचार, चिन्तन तथा व्यवहार भी शुद्ध व पवित्र होते हैं। यज्ञ करने से रोगों का निवारण होता है, मनुष्य स्वस्थ रहता है व इससे आयु में वृद्धि होती है। यह यज्ञ एक प्रीवेन्टिव वा बचाव का कार्य है जिससे नाना प्रकार के रोगों से बचा जा सकता है। वेदों की शिक्षा है कि माता-पिता-आचार्य व विद्वान अतिथियों का अपनी पूरी सामथ्र्य से श्रद्धापूर्वक सेवा व सत्कार किया जाये। इससे माता-पिता, आचार्यों व विद्वानों के साथ हमारे सम्बन्ध मधुर होते हैं। यही कर्तव्य परिवार के सभी सदस्यों का होता है जिससे परिवार में कलह, अशान्ति व मनमुटाव आदि नहीं होते। छोटे अपने से बड़ों की आज्ञाओं का पालन करते हैं। बड़े अपने छोटों की भावनाओं व सुख-सुविधाओं का पूरा ध्यान रखते हैं जिससे परिवार व समाज का वातावरण सौहार्दपूर्ण व मधुर बनता है। वैदिक धर्मी का एक कर्तव्य यह भी है कि वह संसार के सभी प्राणियों को अपनी आत्मा में व स्वयं को उन प्राणियों के भीतर देखता है। इससे यह शिक्षा मिलती है कि सभी प्राणियों के प्रति दया, करूणा, प्रेम व मित्रता का भाव रखते हुए उनके भोजन का प्रबन्ध व उनके जीवन की रक्षा हमें करनी है। यह बात वैदिक संस्कृति के अतिरिक्त अन्य किसी धर्म-पन्थ-मत आदि में शायद नहीं है। इसी से वैदिक धर्म व संस्कृति संसार में श्रेष्ठ व महान है।
हमारे प्राचीन ऋषियों ने वेदों के आधार पर सन्तान को श्रेष्ठ बनाने के लिए जीवन में 16 संस्कारों का विधान किया है। सन्तान के जन्म से पूर्व से ही भावी माता-पिताओं को वेदानुसार संयम, पुरुषार्थ व तप से युक्त जीवन व्यतीत करना होता है और आयुर्वेद के नियमों के अनुसार शुद्ध, निरामिष व स्वास्थ्यवर्धक भोजन करना होता है। संयम व व्रतों से युक्त जीवन व्यतीत करने से ही माता-पिताओं को श्रेष्ठ संतानें प्राप्त होती हैं। सन्तान के निर्माण के लिए संस्कारों का विधान संस्कार विधि में प्राप्त होता है जिसकी वैज्ञानिक एवं वेदोक्त विधि केवल महर्षि दयानन्द ने अपनी पुस्तक संस्कार विधि में दी है। इस पर आर्यजगत के एक संन्यासी स्वामी विद्यानन्द सरस्वती ने संस्कार भास्कर नामी टीका लिखी है। अन्य विद्वानों ने भी संस्कार चन्द्रिका, संस्कार समुच्चय आदि टीकायें लिखी हैं जिसको पढ़कर उसके अनुरुप व्यवहार व जीवन बनाने से सुयोग्य सन्तान का निर्माण होता है। स्वस्थ जीवन और बौद्धिक उन्नति सहित जीवन के मुख्य लक्ष्य ईश्वर साक्षात्कार एवं मोक्ष की प्राप्ति में ब्रह्मचर्य के पालन का भी विशेष महत्व है। महर्षि दयानन्द जी का जीवन स्वयं में अखण्ड ब्रह्मचर्य का साक्षात् उदाहरण था। बच्चों को श्रेष्ठ संस्कार देने के लिए गुरुकुलीय शिक्षा प्रणाली का महत्व भी निर्विवाद है। परिवार के साथ मधुर संबंध बनाने व श्रेष्ठ सन्तान का निर्माण करने से संबंधित वेद एवं वैदिक साहित्य में पर्याप्त ज्ञान विद्यमान है। इसके आधार पर आधुनिक समस्याओं का भी निवारण किया जा सकता है। स्वयं को गुणी व श्रेष्ठ बनाने व अपने परिवार, समाज व देश को सुंसस्कृतज्ञ बनाने के लिए हमें वेदों की शरण में आने, सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्य भूमिका व संस्कारविधि सहित वेद व वैदिक साहित्य का अध्ययन करने व उसके अनुसार जीवन व्यतीत करना होगा। ऐसा करने पर ही हमारे परिवार श्रेष्ठ बनेंगे जिसमें निश्चय ही श्रेष्ठ सन्तानें भी होंगी। इसी के साथ इस लेख को विराम देते हैं।
–मनमोहन कुमार आर्य