गीत
देवों की धरती पर अब अट्टहास कर रहे दानव हैं
अपना खून सफेद हो गया बस कहने को मानव हैं
हमसे अब प्रतिकार ना होता जुल्मी, अत्याचारी का
इलाज नहीं क्या कोई इस कायरता की बिमारी का
वीर शिवाजी के वंशज हैं, राणा की संतान हैं हम
चक्र सुदर्शन कृष्ण का हैं, महाबली पार्थ का बाण हैं हम
परशुराम का तेज है हममें, जनक से हम संस्कारी हैं
आर्य-कुल में जन्म लिया, हम विष्णु के अवतारी हैं
बनकर राम वचन की खातिर वर्षों वन में बिताए हैं
भागीरथ बनकर स्वर्ग से गंगा धरती पर ले आए हैं
लेकिन हुआ ना जाने क्या पुरूषार्थ खो गया लगता है
स्वार्थ की गहरी नींद में सारा देश सो गया लगता है
शत्रु की बातों में आकर राष्ट्र-अस्मिता भूल गए
कौमवाद के, प्रान्तवाद के झूलों में हम झूल गए
वरना जगद्गुरु थे हम, सारा जग विद्या पाता था
इतना संपन्न देश था, सोने की चिड़िया कहलाता था
जिनका शौर्य समा ना पाए अनगिनत गाथाओं में
ऐसे-ऐसे रत्न जने थे भारत की माताओं ने
लेकिन हम इन मोतियों को एक माला में ना पिरो पाए
विदेशी हमलावरों के आगे भी हम एक ना हो पाए
गैरों से क्या गिला करें अपनों का काम ये सारा है
गौरी की औकात थी क्या, हमें जयचंदों ने मारा है
लेकिन जो हो गईं गलतियां उन्हें ना हम दोहराएंगे
इतना तय है कि अब साँपों को ना दूध पिलाएंगे
कह दो जाकर सारे धोखेबाजों और मक्कारों को
जिंदा चुनवा देंगे हम दीवारों में गद्दारों को
ये संकट के बादल सर से तब तक दूर नहीं होंगे
आपसी मतभेदों को भुला हम जब तक एक नहीं होंगे
अब भी ना चेते तो संस्कृति अपनी नष्ट हो जाएगी
आने वाली पीढ़ी हमको माफ ना फिर कर पाएगी
— भरत मल्होत्रा