जब भी यादों में
जब भी यादों में सितमगर की उतर जाते हैं
काफिले दर्द के इस दिल से गुजर जाते हैं
तुम्हारे नाम की हर शय है अमानत मेरी
अश्क़ पलकों में ही आकर के ठहर जाते हैं
इस कदर तंग हैं तन्हाईयां भी यादों से
रास्ते भीड़ के तन्हा मुझे कर जाते हैं
किसी भी काम के नहीं ये आईने अब तो
अक़्स आँखों में देखकर ही संवर जाते हैं
देखकर तीरगी बस्ती में उम्मीदों की मिरे
अश्क़ ये टूटकर जुगनू से बिखर जाते हैं
बसा लिया है दिल में दर्द को धड़कन की तरह
ज़ख्म, ये वक़्त गुजरता है तो भर जाते हैं
खिज़ां को क्या कभी ये अफ़सोस हुआ होगा
उसके आने से ये पत्ते क्यों झर जाते हैं
बुझा के रहते हैं दीये जो उम्मीदों के नदीश
रह-ए-हयात में होते हुए मर जाते हैं
© लोकेश नदीश