धर्म-संस्कृति-अध्यात्म

ऐ मेरे मन ! तू मस्ताना और दीवान बन और ईश्वर को प्राप्त कर ले

ओ३म्

 

पं. चमूपति जी ने सोम सरोवर नाम की एक पुस्तक लिखी है जिसमें उन्होंने सामवेद के पवमान सूक्त के मन्त्रों का काव्यमयी भाषा में मन को भाव विभोर व आह्लादित करने वाला भावार्थ किया है। आज से लगभग बीसपच्चीस वर्ष पूर्व हमने सम्भवतः आर्यमर्यादा साप्ताहिक पत्र में एक आर्य विद्वान के एक लेख में इस सोम सरोवर’ की महत्ता के बारे में महाशय कृष्ण जी का कहा हुआ एक संस्मरण पढ़ा था कि यह पुस्तक इतनी महत्वपूर्ण है कि इस पर साहित्य का नोबेल पुरस्कार मिल सकता था। परन्तु पं. जी के ऋषि भक्त आर्यसमाजी होने के कारण वह इस सम्मान को प्राप्त कर सके। उसी महान पुस्तक से एक मन्त्र का पंडित चमूपति जी कृत भावार्थ प्रस्तुत कर रहे हैं। मन्त्र हैः

 

पवश्व मधुमत्तम इन्द्राय सोम ऋतुवित्तमो मदः।

महि द्युक्षतमो मदः।।

 

“ऐ मेरे मन ! तू मस्ताना बन। दीवाना बन। अन्य मद तो कर्तव्य की भावना को मिटा देते हैं। तेरी मस्ती तेरे प्रति कर्तव्य की भावना को तू और अधिक तीव्र कर दे। तू अपने कर्तव्य-पथ से डिगना नहीं, उस पर उलटा, और भी दृढ़ हो जाना। ऐसा दृढ़ कि संसार का कोई प्रलोभन, कोई भय तुझे इस चट्टान से हटा न सके। तुझे नशा ही कर्तव्य-पालन का हो।

 

मेरी जान ! तू रसमय है। तेरे लिए जीवन का सभी व्यापार रसमय हो रहा है। कर्तव्य-पालन का सा आनन्द किसी और व्यापार में है कहां? इसके लिए कष्ट सहन, दुःख-दर्द उठाना। अत्यन्त मधुर है, अत्यन्त रसीला है। वह कर्तव्य ही क्या जिसके पालन में आत्म-त्याग की आवश्यकता न पड़े? पहिले धन कमाने का लोभ था, अब धर्म के मार्ग में धन लुटाने का लाभ है। पहिले प्रतिष्ठा पाने की उत्सुकता थी, अब सत्य की प्रतिष्ठा के लिए अपने आप अप्रतिष्ठित हो जाने में खुशी है। वास्तविक प्रतिष्ठा है ही सत्य की, सदाचार की।

 

अब तो हमारा एकमात्र धन भगवान् ही है। हमारा एकमात्र यश भगवान् की दृष्टि में ऊंचा उठ जाना ही हो रहा है। भगवान् की ओर जाने में ही आत्मा की सफलता है। मेरी जान ! तू भगवान् की ओर गति कर उसी की खुशी में अपनी खुशी समझ। इस मनोभावना में एक उल्लास है जो अन्य किसी भावना द्वारा प्राप्त नहीं होता। एक आनन्द है, एक मस्ती है जो साधक को झट किसी और लोक का वासी बना देती है। अत्यन्त प्रकाशयुक्त, अत्यन्त उल्लासपूर्ण मस्ती।

 

मेरे मन ! तू मस्ताना बन। दीवाना बन। इतना मस्ताना कि अपनी मस्ती से भी बेखबर हो जा। इतना दीवाना कि तुझे अपने दीवाना होने की भी सुध-बुध न रहे।

मेरी जान ! तू मस्ती की मूरत बन जा। तेरा वास्तविक स्वरूप है ही मद-हर्ष, आह्लाद, दीवानगी, मस्ती। कर्तव्य की मस्ती, सदाचार की मस्ती, न टलने वाले धर्म की मस्ती।”

 

हम आशा करते हैं कि पाठक पंडित चमूपति जी की उपर्युक्त पंक्तियों को पढ़कर उसमें निहित भावों का भरपूर आनन्द लेंगे।

 

मनमोहन कुमार आर्य

4 thoughts on “ऐ मेरे मन ! तू मस्ताना और दीवान बन और ईश्वर को प्राप्त कर ले

  • लीला तिवानी

    प्रिय मनमोहन भाई जी, बहुत खूब! इतना मस्ताना कि अपनी मस्ती से भी बेखबर हो जा. अति सुंदर व सार्थक रचना के लिए आभार.

    • Man Mohan Kumar Arya

      हार्दिक धन्यवाद आदरणीय बहिन जी।

  • विभा रानी श्रीवास्तव

    आनंद आया पढ़

    • Man Mohan Kumar Arya

      यह रचना आपको अच्छी लगी, जानकर प्रसन्नता हुई। हार्दिक धन्यवाद आदरणीय बहिन जी।

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