संस्मरण

मेरी कहानी 144

रेलवे स्टेशन से बाहर आ कर हम ने सारा सामान गाडी में रखा और रानी पुर की ओर चल दिए। सड़क के दोनों ओर हम झाँक रहे थे। कुछ कुछ नया लग रहा था और कुछ अभी भी वोह ही था जो हम भारत छोड़ते वक्त देख गए थे। रेलवे रोड पर जब हम जा रहे थे तो मुझे उस पनेसर बिल्डिंग की याद हो आई जिस में सकूल के दिनों में किराए पर रहते थे, कितनी मस्तियाँ हम ने इस बिल्डिंग के कमरे में की थीं । जब हम सेंट्रल बैंक के नज़दीक आये तो देखा यह बिल्डिंग बहुत खस्ता हालत में थी और इस के सामने लच्छू का ढाबा पहले से कहीं बेहतर था। जीटी रोड के दोनों तरफ हर दुकान और बिल्डिंग को धियान से देखते जा रहे थे। शूगर मिल के नज़दीक आए तो फास्ट मोशन फिल्म की तरह कितनी घटनाएं दिमाग में स्वाइप हो गईं। दूर से चाना बिल्डिंग को देख कर 1958 के मैट्रिक के दिन याद आ गए, जब इस बिल्डिंग के एक चुबारे में हम चार दोस्त रहा करते थे, कितनी मस्तियाँ हम ने उन दिनों में की थीं । इस बिल्डिंग के नज़दीक ही अब एक बड़ा सा होटल बना हुआ था, जिस पर बड़े बड़े अक्षरों में “डुमेली” लिखा हुआ था। निर्मल को इस के बारे में पूछा तो उस ने बताया कि कोई डुमेली गांव का शख्स है, जिस ने यह होटल बनाया है और बहुत बिज़ी रहता है। शूगर मिल के सामने कभी खुला मैदान हुआ करता था लेकीन अब इस जगह पर दुकानें ही दुकानें दिखाई देती थीं। बिदेश में रहते भारती जब अपने देश में आते हैं तो कितनी खुशी होती है, यह वह ही जानते हैं। एक एक जगह को देख कर कितनी उत्सुकता होती है वह गुज़रा हुआ ज़माना ढूंढने की, यह वह ही जानते होते हैं। यहां यह होता था, वहां वह होता था, देखने में एक मज़ा सा होता आ रहा था।

                यूं ही हम जीटी रोड से हुशियार पर रोड की तरफ मुड़े और आगे पलाही रोड की तरफ राणी पुर की ओर कार चली तो मुझे बारह साल पहले की याद ताज़ा हो आई। बात 1983 की थी जब संदीप मेरे साथ इंडिआ आया हुआ था। एक दिन सारा दिन फगवाड़े घूम कर जब हम राणी पुर के लिए कोई तांगा या टैम्पू लेने के लिए अड्डे पर आए तो एक टैम्पू वाले ने हमे देख कर आवाज़ दी, ” सरदार जी, आओ आओ बैठो “, जब हम चढ़ने लगे तो संदीप मुझे बोला,” dad ! look at that tyre, it is dangrous ! “, मैंने टैम्पू के टायर की ओर देखा जो नीचे बिल्कुल गंजे सर की तरफ साफ था, कोई ट्रैड दिखाई नहीं देता था। मैंने संदीप को कहा, ” चल टांगे पर बैठते हैं ” और हम दूसरी तरफ चल पड़े, यहां टांगे खड़े होते थे। टैम्पू तो पहले ही भरा हुआ था और जल्दी ही चल पड़ा। टैम्पू के भीतर इतने लोग नहीं होंगे जितने टैम्पू के इर्द गिर्द और ऊपर बैठे थे। इतनी सवारियां बैठना तो यहां आम बात थी लेकिन संदीप यह देख कर घबरा गया था। तांगा कोई बीस मिनट बाद चला। जब तांगा होशिआर पुर रोड से राणी पुर की ओर मुड़ा तो इसी जगह वह ही टैम्पू उल्टा पड़ा था और कई सवारियों के खून निकल रहा था। टायर फट गया था। बहुत लोग इकठे हो गए थे। मन में सोचा, आज तो भगवान ने रख लिया था। संदीप ना कहता तो शायद हम भी इसी टैम्पू में बैठे होते।
ठीक इसी जगह अब मैरेज पैलेस बना हुआ था। किसी और की बात मैं नहीं करूंगा लेकिन मुझे एक आदत सी बनी हुई है, हर पुरानी जगह को धियान से देखने की, शायद कोई और इसे फोबिआ ही कहे लेकिन मैं अपने मन की बात को छुपाना नहीं चाहता। जैसे जैसे हम अपने गांव राणी पुर की  ओर जा रहे थे, मैं हर नई बिल्डिंग की जगह पुरानी जगह  देखने की कोशिश कर रहा था। पलाही बस अड्डे पर आए तो बहुत रौनक थी। कभी यहां दाने भूनने वाली की भट्टी हुआ करती थी और इस के साथ ही मिन्दर सिंह साइकल रिपेयर करने वाले की दुकान होती थी और यहाँ अक्सर दो युवा अधियाप्काएं साइकलों में हवा भराने के लिए खड़ी होती थीं और हम भूखी नज़रों से उन्हें देखा करते थे।  कभी यह सड़क एक कच्चा रास्ता ही होती थी, जिस पर छकड़े या साइकल चलते रहते थे और अब यह एक बहुत बिज़ी सड़क थी। कितना कुछ बदल गया था। बॉर्न गांव, यहां कभी पपीते खाया करते थे, अब छोटा सा बस अड्डा बना हुआ था और कल ही मैंने पंजाबी के पेपर अजीत में पढ़ा था, इस जगह बहुत बड़ा बस अड्डा बनने जा रहा है क्योंकि इस जगह बहुत से गांवों से सड़कें आ कर मिलती हैं। जल्दी ही हम रानी पुर आए  गए और घर के गेट के बाहर खड़े थे। मां जिस को हम बीबी कह कर बुलाते थे, ने गेट खोला और हम उस के गले लिपट गए। निर्मल की पत्नी परमजीत भी आ गई और निर्मल के का दूसरा बेटा  मनदीप भी आ गया, यह सब बच्चे अब जवान  हो गए थे ।
भीतर कमरे में आए तो पुरानी फोटो सामने लगी थी और शीशे वाली अलमारी में वह शतुर मुर्ग का बड़ा अंडा अभी भी वहीं पड़ा था जो मेरे पिता जी कभी अफ्रीका से लाए थे। आंगन में एक बड़ा आम का पेड़ लगा हुआ था जो पहले नहीं देखा था। एक तरफ निर्मल और परमजीत ने अपनी सर्जरी बनाई हुई थी जिस में वह होमिओपैथी से इलाज करते थे और साथ ही अंग्रेज़ी दवाओं से भी , सर्जरी में एक बैंच मरीजों के बैठने के लिए रखा हुआ था। बहुत सी दवाइयां एक बड़ी अलमारी में रखी हुई थीं। इस सर्जरी के साथ ही इलैक्ट्रीकल गुड्स की दुकान थी जो निर्मल के दोनों लड़के चलाते थे और इस में ही छोटी सी जगह में वह रिपेयर का काम करते थे। सर्जरी के बाहर एक बोर्ड लगा हुआ था, जिस पर लिखा हुआ था “डाक्टर निर्मल सिंह भमरा ” और साथ ही इलैक्ट्रीकल गुड्स की दुकान के बाहर लिखा हुआ था, ” भमरा इलैक्ट्रीकल स्टोर “. इन दोनो दुकानों से अच्छी आमदनी हो जाती थी। दरअसल यह दुकाने उसी जगह बनी हुई थी यहां एक दफा जब संदीप मेरे साथ आया था तो इन की दीवारें उस वक्त छोटी छोटी थीं और संदीप को मैं शौच यही कराया करता था क्योंकि उस समय घर में शौचालय नहीं होता था । तब निर्मल लिबिया गया हुआ था।
इस सर्जरी का मैंने इस लिए ज़िकर किया है , क्योंकि जब कभी कोई मरीज़ नहीं होता था तो मैं, कुलवंत, निर्मल और परमजीत यहां बैठ कर गप छप किया करते थे। इन दुकानों के सामने साथ ही सड़क जाती थी और जब कभी हम ने बस या टैम्पू लेना होता तो दुकान के बाहर ही खड़े हो जाते थे। दुकान के बाहर भी थोड़ी सी जगह बैठने के लिए होती थी और एक शख्स जिस के पैरों में जूते नहीं होते थे और कपड़े फटे हुए होते थे, बैठा निर्मल से अखबार ले कर पड़ता रहता था और  कुलवंत ने उस को इंग्लैंड वापस आते समय कुछ कमीज़ें और पजामे दे दिए थे। परमजीत ने बताया था कि इस शख्स की पत्नी और बेटी लोगों के घरों में काम करके कुछ कमा लेती थीं लेकिन  यह शख्स कोई काम नहीं करता था। परमजीत ने यह भी बताया था कि यह शख्स कभी टीचर हुआ करता था और कुछ साल पढ़ाने के बाद इस की नौकरी छूट गई थी और इस के बाद उसे कोई काम नहीं मिल सका था   । मैंने दिमाग पे बहुत जोर लड़ाया था कि यह शख्स कौन हो सकता था लेकिन मैं जान नहीं सका था। इस शख्स  की याद मुझे बहुत साल आती रही कि यह कौन हो सकता था। फिर एक दिन मुझे गियान की हट्टी की यादें ताज़ा हो आई और फिर अचानक एक शख्स का चेहरा मेरी आंखों के सामने आ गया जो शानदार पैंट और कमीज़ में आया करता था और आंखों पे काले रंग का चश्मा होता था, जेब में रुमाल होता था। कहते थे यह कहीं मास्टर लगा हुआ था, अब मुझे समझ आ गई कि वह शख्स यही था जो निर्मल की दुकान के सामने नंगे पांव बैठा अखबार पड़ा करता था। यह जान कर मुझे बहुत दुख हुआ कि इंसान के दिन कैसे बदल जाते हैं। इलैक्ट्रिक की दुकान में ही एक दिन एक आदमी आया, जिस की लम्बी दाहडी थी । उस ने ट्यूबवैल के लिए कुछ पार्ट्स खरीदने थे। निर्मल ने मुझे बताया की यह जोगिंदर है और कभी हमारी क्लास में हुआ करता था लेकिन मैं जान नहीं पाया कि यह कौंन जोगिंदर है और मैंने कह दिया कि मुझे याद नहीं आता। जोगिंदर बोला,” कोई बात नहीं अक्सर पुरानी बातें भूल ही जाती हैं ” . बात यहीं समापत हो गई और इस के कुछ साल बाद जब एक दिन मैं मिडल स्कूल के दिनों में अपने साथिओं को याद कर रहा था, तब जोगिंदर की याद आ गई जो बहुत गोरा था और बहुत बातें किया करता था, अब मुझे उस जोगिंदर की याद आ गई जो निर्मल की दुकान में कोई पार्ट खरीद रहा था। एक दम दिमाग में सब क्लीयर हो गया कि दुकान वाला जोगिंदर और मिडल स्कूल वाला जोगिंदर एक ही थे। मुझे इस बात पर बहुत दुख हुआ कि उस वक्त मुझे याद क्यों नहीं आई जब वह दुकान में मेरे सामने खड़ा था। अब पछताया किया होत जब . . . . . .
शायद ही कभी ऐसा दिन हो, जब मैं और कुलवंत  घर से बाहर ना गए हों। बैग पकड़ कर हम दुकान के बाहर खड़े हो जाते, कोई ना कोई बस या टैम्पू आ जाता और हम सीधे फगवाड़े आ जाते। फगवाड़े से रिक्शा लेते और कुलवंत की बहन दीपो के गांव नंगल खेड़े पहुंच जाते। कुछ घण्टे गप्प शप्प करते  और फिर रिक्शा ले के फगवाड़े आ जाते और किसी होटल में चले जाते। जीत को हम मुंबई मिल कर आए थे लेकिन एक दिन मुझे पता चला कि जीत गांव में आया हुआ है। जीत के खेतों में एक जगह होती थी और अब भी है, जिस को मेहटियाना कहते हैं। यहां जीत के बापू जी ने एक छोटी सी जगह बनाई हुई है, उन का मानना है कि यहां उन के बज़ुर्गों की आत्माएं रहती हैं। इस जगह पर अब काफी कमरे बन गए हैं और हर साल अखंडपाठ होता है और बहुत लोग आते हैं। जीत इस अखंडपाठ की वजह से ही आया था। में अकेला ही एक शाम इन खेतों की ओर चल पड़ा। अब तो इस जगह को जाने के लिए सड़क भी बन गई है। ” ओए कद्दू तू ने मुझे बताया नहीं कि तूने गांव आना था ” तो जीत कहने लगा, ” यार ! मेरा अचानक ही प्लैन बन गया वरना मैंने आना नहीं था “, बहुत बातें हम ने की, दोनों ने बैठ कर लंगर छका और मैं घर आ गया। ऐसे ही एक दिन हमे पुन्नी का खत आया कि वह अपने गांव नंगल मझा आ रहे हैं और हमे मिलने राणी पुर आएंगे। इस के कुछ दिन बाद ही वह राणी पुर आ गए। बहुत बातें हम ने की और एक दिन आनंद पुर साहब जाने का प्रोग्राम बन गया।
गांव में पुराने चेहरे अब बहुत कम हमे दिखाई दिए थे क्योंकि जो छोटे छोटे लड़के हम छोड़ गए थे, अब उन के कई कई बच्चे थे। फिर भी पुराने लोग भी अभी काफी थे। उन से बातें करके खुशी होती और उन को मैं जान बूझ कर पुराने दिनों में ले जाता। मैं उन से बहुत बातें पूछता। हमारे घर से कोई पचास गज़ की दूरी पर एक बहुत बड़ा पीपल का बृक्ष है, बचपन मैं ने देखा था, यहां मुसलमान लोग इकठे होते थे। उस वक्त यहां कोई कमरा नहीं होता था। इस जगह को बावा खान कहते हैं। मैं गवाह हूं कि यहां कुछ भी नहीं होता था, सिर्फ मुसलमान लोग कभी कभी दिए जलाया करते थे। जब मैं 1962 में इंग्लैंड आया तो मुझे जीत का खत आया, जिस में उस ने हंस हंस कर डीटेल में लिखा हुआ था कि एक मैहंघा नाम का चर्मकार जो अक्सर इस पीपल के बृक्ष की जड़ों में दिए जलाया करता था, उस को हवा आने लगी थी और वह सर घुमा घुमा कर खेलने लगा था और लोग आने शुरू हो गए थे। दूसरे खत में जीत ने लिखा था कि अब दूर दूर से लोग आने शुरू हो गए थे और संगीतकार भी आने शुरू हो गए। खुल्ले दिल से लोग पैसे चढ़ाने लगे थे और अब संगत के लिए बिल्डिंग बनाने की बातें शुरू हो गई थी, फिर खत आया कि अब यह काम कुछ मद्धम पढ़ गया था क़्योंकि लोग बातें कर रहे थे कि मैहंघे ने इन पैसों से चर्मकार बस्ती में अपना शानदार मकान बना लिया था और रोज़ शाम को शराब पीता था लेकिन अभी भी कुछ लोग महंगे को इज़त से बुलाते थे। जीत ने मुझे बहुत कुछ लिखा था। अब इस जगह छोटा सा गुर्दुआरा बना हुआ है और झंडा झूल रहा है और इस जगह को बहुत सत्कार से देखते हैं। अब तो मैं बहुत देर से गांव गया नहीं हूं लेकिन इंटरनेट पे देखता रहता हूं कि अब इस जगह पर बावा खान के नाम से मेले लगते हैं। कवालिआं गाई जाती हैं, बड़े बड़े कलाकार इस जगह आते हैं। हज़ारों की तादाद में लोग आते हैं।
इसी तरह गांव के दूसरी ओर  एक पीर जिन्देशाह की कबर होती थी और साथ में बहुत बड़ा बोहड़ का बृक्ष होता था। क्योंकि इस  मुहल्ले में मुसलमान लोग ज़्यादा होते थे तो वह अपने त्योहार मनाया करते थे। यही जगह थी जब देश विभाजन के वक्त रहमत अली शराब पी कर गोलिआं चला रहा था, सारा गांव डरा हुआ था। रहमत अली बहुत बड़ा बदमाश होता था। फिर गांव के लोगों ने इकठे हो कर रहमत अली पर हमला कर दिया था और उसे गोली मार कर ज़िंदा ही जला दिया था, जब गोळ्यां चल रही थीं तो मैं और मां अकेले घर में रो रहे थे। कितने बुरे दिन थे वह और आज यह पीर जिन्देशाह भी एक डेरा बन गया है और यहां भी मेले लगते हैं। एक बात की भारत वासिओं को दाद देता हूं कि ऐसे धर्म अस्थान बनाने में हम कितना आगे निकल आए हैं। यह लिखने का मेरा मकसद यही है कि ऐसे डेरे रोज़ रोज़ बन रहे हैं, गांव में किसी स्कूल या लाएब्रेरी बनाने के लिए हमारे पास कोई पैसा नहीं होता लेकिन कोई धार्मिक अस्थान खड़ा करने के लिए हम खज़ाने खोल देते हैं, शायद इस को हम इन्वैस्टमैंट समझ कर दान देते हैं या स्वर्ग में अपनी सीट रिज़र्व करने के लिए।
चलता. . . . . . . . . .

5 thoughts on “मेरी कहानी 144

  • Man Mohan Kumar Arya

    नमस्ते आदरणीय श्री गुरमेल सिंह जी। किस्त पूरी पढ़ी,. रोचक उपन्यास की तरह अच्छी लगी। हिन्दुस्तान अंधविश्वासों में संसार में शायद सबसे आगे है। इसका एक कारण यह भी है कि जिन लोगो ने सत्य का प्रचार करना था वह मंदिर बना व दूसरों से बनवाकर लोगो से दान रूपी भीख लेकर मौज करते हैं और लोगो को मूर्ख बनकर अपनी वा अन्य अन्य की पूजा कराते हैं। प्रायः सभी मत व मजहबो की एक समान स्तिथि है। जो सच्ची बात करता है उसके पीछे लोग काटने को दौडते हैं। ईश्वर सबको सद्बुद्धि दे। सादर।

    • मनमोहन भाई , आप सच कह रहे हैं . यह बचपन में मेरी देखि हुई घटनाएं हैं .हमारे गाँव में मुझ से भी बड़े बजुर्ग अभी मौजूद हैं और वोह जानते हैं किः इस जगह कुछ नहीं होता था, सिर्फ मुसलमान लोग दिए जलाया करते थे .अब यह सही मानों में धर्मस्थान बने हुए हैं और धर्म गुरु लाखों रूपए बना रहे होंगे . हमारे गाँवों से सभी मुसलमान देश भिवाजन के वक्त पंजाब छोड़ गए थे, अब फिर पंजाब में मुसलमान बहुत हैं . मुझे उन के होने का कोई इतराज़ नहीं लेकिन जो उन्होने पीरों की दरगाहें बना ली हैं मुझे उस पे भी कोई इतराज़ नहीं लेकिन मुझे इतराज़ है किः हमारे हिन्दू सिख मुसलमानों की दरगाहों पर जाते हैं और बड़े बड़े सिंगर जाते हैं और फिर मुसलमान हमारे पीछे हम को काफर समझते हैं .

      • Man Mohan Kumar Arya

        नमस्ते एवं हार्दिक धन्यवाद आदरणीय श्री गुरमेल सिंह जी। मेरी आपके विचारों से पूर्ण सहमति है। भारतीयों की आत्माओं में ईश्वर व सत्य का यथार्थ बोध न होने के कारण यह स्तिथि है। सभी दोषियों और हमारी भावी पीढ़ियों को इसका खामियाजा भुगतना पड़ेगा। यह दुखद स्तिथि। है.

  • लीला तिवानी

    प्रिय गुरमैल भाई जी, हामेशा की तरह यह एपीसोड भी बहुत रोचक और मज़ेदार लगा. राणीपुर जाना हुआ, तो यह सारी बातें याद आएंगी. एक और अद्भुत एपीसोड के लिए आभार.

    • लीला बहन , बस यह भूली विसरी यादें ही हैं जो एक माला में पिरो रहा हूँ . एपिसोड पसंद करने के लिए धन्यवाद .

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