मुक्तक/दोहा

दोहे : पागल बनते लोग

पागलपन में हो गयी, वाणी भी स्वच्छन्द।
लेकिन इसमें भी कहीं, होगा कुछ आनन्द।।

पागलपन में सभी कुछ, होता बिल्कुल माफ।
पागल को मिलता नहीं, कहीं कभी इंसाफ।।

मजा समझ कर पी रहा, पागल गम के घूँट।
आता नहीं पहाड़ के, नीचे उसका ऊँट।।

ऐसा पागलपन भला, जिसमें हो लालित्य।
नित्य-नियम से बाँटता, सबको सुख आदित्य।।

दुनिया में होती अलग, पागल की पहचान।
समाधान करता नहीं, इसका अनुसंधान।।

पागल का तो पूछता, कोई नहीं मिजाज।
सिर्फ दिखावे के लिए, करते लोग इलाज।।

न्यायालय में भी बढ़ा, पागलपन का रोग।
अपने स्वारथ के लिए, पागल बनते लोग।।।

इस असार संसार में, बिखरे कितने रंग।
आकुल मेरा मन हुआ, देख जगत के ढंग।।

राजनीति का खा रहे, पुत्र-पौत्र-दामाद।
धर्म-प्रान्त का जात का, बढ़ा हुआ उन्माद।।

दर्पण गुरू समान है, मूरत होता शिष्य।
जैसी होगी कल्पना, वैसा बने भविष्य।।

गुरू-शिष्य पागल हुए, ज्ञान हुआ विकलांग।
नहीं भरोसा कर्म पर, बाँच रहे पंचांग।।

राजनीति का खा रहे, पुत्र-पौत्र-दामाद।
धर्म-प्रान्त का जात का, बढ़ा हुआ उन्माद।।

डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’

*डॉ. रूपचन्द शास्त्री 'मयंक'

एम.ए.(हिन्दी-संस्कृत)। सदस्य - अन्य पिछड़ा वर्ग आयोग,उत्तराखंड सरकार, सन् 2005 से 2008 तक। सन् 1996 से 2004 तक लगातार उच्चारण पत्रिका का सम्पादन। 2011 में "सुख का सूरज", "धरा के रंग", "हँसता गाता बचपन" और "नन्हें सुमन" के नाम से मेरी चार पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। "सम्मान" पाने का तो सौभाग्य ही नहीं मिला। क्योंकि अब तक दूसरों को ही सम्मानित करने में संलग्न हूँ। सम्प्रति इस वर्ष मुझे हिन्दी साहित्य निकेतन परिकल्पना के द्वारा 2010 के श्रेष्ठ उत्सवी गीतकार के रूप में हिन्दी दिवस नई दिल्ली में उत्तराखण्ड के माननीय मुख्यमन्त्री डॉ. रमेश पोखरियाल निशंक द्वारा सम्मानित किया गया है▬ सम्प्रति-अप्रैल 2016 में मेरी दोहावली की दो पुस्तकें "खिली रूप की धूप" और "कदम-कदम पर घास" भी प्रकाशित हुई हैं। -- मेरे बारे में अधिक जानकारी इस लिंक पर भी उपलब्ध है- http://taau.taau.in/2009/06/blog-post_04.html प्रति वर्ष 4 फरवरी को मेरा जन्म-दिन आता है