कविता

दहलीज़ और किवाड़

मेरे मकां के
किवाड़ और दहलीज़
गवाही देते हैं
खुशी और गमों की
लटकता तोता ऊन का
नयापन दिखाये
दिखाये टूटी सांकल
उलझनों की
मैं डालकर खाट
बीच इसको गर्मी में सोया
करता था
जब मूँदी आँखें दादाजी ने
लेकर सहारा इनका
रोया करता था
खट-खट भरी आवाज़
मेहमानों का संदेशा देती थी
साँय साँय की आवाज़
आँधी तुफां का
अंदेशा देती थी
आज इंसान में कोई संवेदनाएं नहीं
सब आर पार हो जाता है
काँच के मकानों के सामने
लकड़ी का किवाड़ बेकार हो जाता है
आज कबाड़ में रखे वो दोनों
आराम से लेटे हैं
छूने के लिए बैठ गया पल भर
वो मेरा पूरा एहसास समेटे हैं

परवीन माटी

प्रवीण माटी

नाम -प्रवीण माटी गाँव- नौरंगाबाद डाकघर-बामला,भिवानी 127021 हरियाणा मकान नं-100 9873845733

One thought on “दहलीज़ और किवाड़

  • विजय कुमार सिंघल

    बेहतरीन अभिव्यक्ति !

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