कविता : राहगीर और पायदान
पड़े रहते हैं स्थिर
किसी नाले या खड के पानी में
पंक्तिवद्ध पत्थर
लड़ते हैं हर बार
बहाव के आवेग से
करवाते जाते हैं पार
हर गुजरने वाले को
बिना किसी क्षति के l
मसले जाते हैं हर बार
अभिलाषाओं के पावँ तले
झेलते हैं मार
प्रतिकूल परिस्थितियों की
मगर निभाते जाते हैं अपना धर्म
शायद ! आदतन ही………!
समाज में भी होते हैं
कुछ ऐसे ही शख्स
जो बनते हैं हमेशा ही पायदान
बाधित और मुश्किल राहों पर
लगाते हैं पार
स्वार्थी एवं मौकापरस्त राहगीरों को l
मगर कर दिए जाते हैं
उपेक्षित हर बार
इस्तेमाल किये जाने के बाद
रहते हैं वे
भीतर समेटे
किसी गहरी वेदना को l
नहीं चाहता महसूसना
कोई भी
उनकी आँखों के कोनों में
उभर आई नमी को l
फिर भी
राहगीर और पायदान दोनों ही
नहीं बदल पाते
अपनी नियति l
ठीक उस कहानी के
साधु की तरह
जिसमें कि बहने से बचाया गया बिच्छू
नहीं छोड़ता है डंक मारना
और न ही कभी रुकते हैं
उसे बचाने वाले हाथ !
-मनोज चौहान
*खड – एक प्रकार की छोटी नदी