गीतिका/ग़ज़ल

ग़ज़ल

ग़ज़ल
ये बादल मुझको तो वेबफा से लगते
एकपल ना ठहरते कहीं ओर जा बरसते

साथ रखते हैं सदा ये बिजलियां अपनी
देर से समझा मुझसे झूँठा वास्ता रखते

झूँठ से पर्दा उठाया जब-जब भी मैंने
वोआकर तेश में छत पर गरजने लगते

शायद ही समझेंगे वो मेरी चाहत को
जब भी उन्हें देखा खफा-खफा से लगते

कहने को जलधर पर लगता नहीं ऐसा
ये काले मेघ मुझको विषधर से लगते

बरस जायेंगे जिस दिन मेरी अटरिया पर
फिर ये गिले शिकबे रफ़ा-द़फ़ा से लगते

कब से जोह रही हूँ बाट उनके आने की
‘व्यग्र’ हूँ दिन-रात मुझे एक से लगते …
                        –  पाण्डेय ‘व्यग्र’

विश्वम्भर पाण्डेय 'व्यग्र'

विश्वम्भर पाण्डेय 'व्यग्र' कर्मचारी कालोनी, गंगापुर सिटी,स.मा. (राज.)322201