एक बार फिर से
चल चित्र की भाँति
विगत का कुछ धुंधला
स्मरण………..
चित्रवत उभरने लगा है
जब भी अकेलापन घेरता है
ऐसा ही होता है ।
चाह नही होती फिर भी…
बहुत दूर तक लुढ़कने लगती हूँ ।
और यादों का ये अंधेरापन
उजाले को छोड़कर हर स्मृति को
एक दुसरे से जोड़ते हुए
आगे की ओर बढता है ।
पर जैसे हीं……..
मंथन का कोई थपेड़ा
झकझोरता है वैसे हीं कोई
सुखद स्मृति बूंद की तरह
छलकती हुई बाहर आकर
अंधेरे मे चमक उठती है ।
ए काश….
वो स्नेहिल स्पर्श एक बार
विगत से बाहर आ सामने
पास खड़ा होता,
एक बार फिर से !!
— प्रमिलाश्री
waah .. bahut hi sundar