कहानी

सब मेरे अपने, मैं सबका

रिटायरमेंट एक ऐसा पड़ाव होता है, जहां खुशी और ग़म का संगम होता है. एक तरफ अपनी खुशहाल जिंदगी में सुकून के कुछ लम्हे अपनी मर्ज़ी से बिताने की खुशी होती है, दूसरी तरफ अपनी व्यस्त ज़िंदगी के साथियों से अलग होने का ग़म भी सालने लगता है. पर यह ग़म कुछ ही दिनों तक रहता है, फिर जिंदगी नए ढर्रे की आदी होनी शुरु हो जाती है. पांडेय जी के साथ भी ऐसा ही हुआ. सचमुच वे अपनी खुशहाल जिंदगी का लुत्फ़ उठा रहे थे. समाज-सेवा तो पूरे परिवार को मानो विरासत में ही मिली थी, सो कुछ समय उसमें सार्थक हो रहा था.

 

पांडेय जी का मानना था, कि चाहे कितनी ही अच्छी बातें सुनें, पढ़ें या बोलें, अपने ही जीवन में उन्हें लागू नहीं करते तो क्या फायदा? इसलिए वे अपने मां-पिताजी द्वारा दिए गए देश-सेवा व समाज-सेवा के संदेश को साकार रूप देते हुए अपनी पत्नि और बेटे के साथ खुश थे. उनकी पत्नि अध्यापन के व्यवसाय से रिटायर हुई थीं और अब भी पड़ोस के बच्चों के अध्यापन के ज़रिए समाज-सेवा कर रही थीं. बेटा भी समाज-सेवक के रूप में प्रसिद्ध था. जरूरतमंदों की जरूरत को पूरा करना अपना फर्ज़ समझता था. उसने विवाह नहीं किया था और अपनी आय को समाज-सेवा में ही लगा देता था, घर के खर्चों के लिए तो मां-पिताजी की पेंशन और जमापूंजी ही काफी थी.

 

पर, वक्त हमेशा एक-सा कब रहता है. सुकून का अहसास होते ही कभी-कभी वक्त ऐसी अंगड़ाई ले लेता है, कि सब कुछ उलट-पुलट हो जाता है. एक दुर्घटना के रूप में वक्त की आंधी बेटे को तिनके की तरह उड़ा ले गई. उसके बाद पत्नि भी अधिक समय तक नहीं टिक पाई. अब शेष बचे थे पांडेय जी और उनका खालीपन. खालीपन के साथ अकेलापन तो हावी हो ही जाता है. इसलिए, अकेलेपन को दूर करने के लिए उन्होंने पूरी तरह से पुनः समाज-सेवा का ही सहारा लिया.

 
पत्नि की गरीबों की मदद करने की आदत को जारी रखते हुए पांडेय जी ने गरीब बच्चों के लिए स्कूल खोला, इसमें उन्होंने हिंदी भाषा के प्रयोग पर बल दिया. स्कूल में 73 स्टूडेंट्स पढ़ते हैं, जो कि आसपास के इलाकों के हैं. इनके लिए तीन टीचर्स का स्टाफ काम करता है. इसके साथ ही उन्होंने गरीबों का होम्योपैथी से इलाज करना भी शुरू कर दिया. उन्होंने घर के नीचे ही क्लीनिक खोल लिया है, वह गरीबों को मुफ्त में दवाइयां देते हैं. नौकरी करते-करते उन्होंने होम्योपैथी का कुछ ज्ञान प्राप्त कर लिया था, जो अब काम आ रहा था.

 
पांडेय जी अपने जीवन में एक समय बेहद अकेले पड़ गए थे, लेकिन अब वे काफी संतुष्ट भी हैं और खुश भी. उनकी संतुष्टि की एक बानगी देखिए- ”बुजुर्ग हूं तो क्या हुआ, आज भी समाज में बढ़-चढ़कर कार्यक्रमों में हिस्सा लेता हूं और जहां पर मेरी मदद की आवश्यकता होती है, करता हूं. जिंदगी से सीखा है कभी हार न मानो, दिल में जज्बा हो तो सब कुछ संभव है. कभी मैं अपने को अकेला समझने लगा था, अब अकेलेपन का नामो-निशान ही मिट गया है. सब मेरे अपने हैं, मैं सबका हूं.’

*लीला तिवानी

लेखक/रचनाकार: लीला तिवानी। शिक्षा हिंदी में एम.ए., एम.एड.। कई वर्षों से हिंदी अध्यापन के पश्चात रिटायर्ड। दिल्ली राज्य स्तर पर तथा राष्ट्रीय स्तर पर दो शोधपत्र पुरस्कृत। हिंदी-सिंधी भाषा में पुस्तकें प्रकाशित। अनेक पत्र-पत्रिकाओं में नियमित रूप से रचनाएं प्रकाशित होती रहती हैं। लीला तिवानी 57, बैंक अपार्टमेंट्स, प्लॉट नं. 22, सैक्टर- 4 द्वारका, नई दिल्ली पिन कोड- 110078 मोबाइल- +91 98681 25244

One thought on “सब मेरे अपने, मैं सबका

  • मनमोहन कुमार आर्य

    अच्छी शिक्षाप्रद कहानी के लिए आपका हार्दिक धन्यवाद एवं आभार।

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