ग़ज़ल
किस्सा कब हो गया तमाम खबर ही ना हुई
कितने रह गए अधूरे काम खबर ही ना हुई
मैं रोज़मर्रा के मसाइल में उलझा ही रह गया
ढली कब ज़िंदगी की शाम खबर ही ना हुई
गम के जज़ीरे से हमें आई जब-जब आवाज़
लिया कब तेरा दामन थाम खबर ही ना हुई
चमकता आसमानों पर जिसे देखा था कल हमने
कब हो गया वो गुमनाम खबर ही ना हुई
अपनी नज़रों से जो इक बार पिला दी उसने
फिर छूटा हाथ से कब जाम खबर ही ना हुई
और भी तो लोग थे फिर कत्ल मैं ही क्यों हुआ
कौन सा था मुझ पर इल्ज़ाम खबर ही ना हुई
— भरत मल्होत्रा