जीत
आज फिर पत्नी से कहासुनी हुई | रोज की चिकचिक से तंग आकर मनोज चल पड़ा |
जब दिमाग़ जागा तो पटरियों के बीच खुद को पाया | सोचा ट्रेन आते ही कूद पड़ेगा उसके सामने !
कितना मना किया था माँ ने कि पूरब और पश्चिम का मिलन ठीक नहीं हैं | पर वह प्रेम में अँधा था | उसने सोचा था कि थोड़ा वो गाँव से जुड़ेंगी और थोड़ा मैं उसकी तरह मॉडर्न हो जाऊंगा | परन्तु दो साल में कोई तालमेल ना बैठा पाया | पिंकी तो मेरे रंग में रत्ती भर न रंगी और मैं , मैं हूँ कि घर-बार ,माँ-बाप सब कुछ छोड़ दिया उसके लिए | हर समय उसके साथ खड़ा रहा पर वह ….|
इसी बीच दनदनाती हुई एक ट्रेन बगल की पटरियों से गुजर गई | उसकी धड़धड़ाती हुई आवाज से पुनः वर्तमान में लौटा | जीवन से तंग मन और आत्मग्लानी में भय बहुत दूर हो गया था उससे |
मंथन अब भी चल ही रहा था ‘हा’ या ‘ना’ | दूसरी ट्रेन का इंतज़ार करता हुआ वही पटरी पर बैठ गय़ा !
तभी उसने ध्यान से देखा, वो जिस दो पटरियों के मिलने वाले पाट पर बैठा था; वही से दो पटरी निकल अलग-अलग हो ट्रेन चलने का माध्यम बन रही थीं | फिर अपनी दूरी बनाते हुए दूर कहीं मिलते हुई सी दिख रही थीं | अब उसका दिमाग पूरी तरह जाग चूका था | फूलों का गुलदस्ता ले घर की ओर चल पड़ा |