कविता : सुन रहे हो न …
सुन रहे हो न
उस वैधव्य की
करूण पुकार
जिसका छूटा नहीं
अब तलक
मेंहदी का रंग
लेकिन
उजड़ गया सुहाग ।
देख रहे हो न
उदास बगिया
गमगीन चेहरा
और
बिलखता परिवार ।
क्या-क्या नहीं
स्वप्न देखा होगा
वो शख्स
समाज के लिए
परिवार के लिए
राष्ट्र के लिए ।
अरे !
बदलो
मत बढ़ाओ पाँव
उस रास्ते की ओर
जो ले जाना चाहती तुम्हें
गर्दिश राहों में !!!
— मुकेश कुमार सिन्हा
सुंदर