कुण्डली/छंद

पूत हुवे हैं कपूत

काट डालो जड़ उस, वृक्ष की हवाओ में जो देश की नफ़रतों के ज़हर को घोलता
आपस में लड़ रहे, झगड़ रहे है हम ,पडोसी भी सीमाओ पे, इसीलिये डोलता
खुद से ही लड़ कर, खोखले हुए पड़े है, इसीलिये वो हमारे, बाजू बल तौलता
भारती के मान का भी , होता अपमान जहाँ , देश का विधान उन्हे ,कुछ नहीं बोलता

देश में मिलेंगे अभी ,सैकड़ो ज़फर और, दुश्मन ऐसे ही लोगो, की नस टटोलता
कर सके सौदे बाजी , माँ के संग दगाबाजी ,पैसो के लिये जो देश ,द्रोह भी कबूलता
मेरे ही वतन रोटी , खाता व कमाता यही ,माँ का दूध पी के माँ को ,डायन भी बोलता
भारती के पूत कैसे ,हो गये कपूत सोच ,सोच के नसो में अब ,खून मेरा खोलता

— मनोज “मोजू”

मनोज डागा

निवासी इंदिरापुरम ,गाजियाबाद ,उ प्र, मूल निवासी , बीकानेर, राजस्थान , दिल्ली मे व्यवसाय करता हु ,व संयुक्त परिवार मे रहते हुए , दिल्ली भाजपा के संवाद प्रकोष्ठ ,का सदस्य हूँ। लिखना एक शौक के तौर पर शुरू किया है , व हिन्दुत्व व भारतीयता की अलख जगाने हेतु प्रयासरत हूँ.

2 thoughts on “पूत हुवे हैं कपूत

  • विभा रानी श्रीवास्तव

    वाह
    उम्दा भावाभिव्यक्ति

    • मनोज डागा

      हृदय तल से आभार

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