ग़ज़ल
अपने हालात से बेखबर आदमी,
ना चैन पाए कहीं बेसबर आदमी
और पैसे कमाने का लालच लिए,
गांव से आ गया है शहर आदमी
जीने की चाह में मरता है रोज़
रोज़ पीता है थोड़ा ज़हर आदमी,
आज जिसकी किसी को जरूरत नहीं,
बासी अखबार की इक खबर आदमी
ख्वाब जितने भी थे ना मुकम्मल हुए,
हसरतों का है अधूरा सफर आदमी
कितने अरमान सीने में करके दफन,
बन गया खुद ही अपनी कबर आदमी
मैंने देखा है मगरिब से मशरिक तलक,
मुझको आया नहीं कहीं नज़र आदमी
— भरत मल्होत्रा