गीत: मैं भी पंछी बन जाऊं
उन्मुक्त गगन में उड़ते पंछी क्या कहते हैं सुना कभी
आओ मिल कर सब एक साथ क्षितिज पार उड़ चलें सभी l1l
कम्पित काया को संयत कर घर की देहरी पर धरे पांव
दो कदम बढ़े पगडंडी पर छूटा पीछे अब मेरा गांव ।२।
अनजान डगर पर निकल पड़ी हूं जिसका कोइ छोर नहीं
पग कोमल पर विश्वास प्र बल टूटेगी अब ये डोर नहीं।३।
कभी सुना था गगन पार है परियों का एक सुन्दर देश
प्रेम भाव से परिपूरित जन ही पाते हैं वहां प्रवेश ।4l
मन में है एक आस यही मैं भी नन्ही सी बन जाऊं
नन्हें-नन्हें पंख लगा कर परी-लोक को उड़ जाऊं।
— लता यादव
लाजवाब सृजन नमन आदरणीया