गीत/नवगीत

गीत: मैं भी पंछी बन जाऊं

उन्मुक्त गगन में उड़ते पंछी क्या कहते हैं सुना कभी
आओ मिल कर सब एक साथ क्षितिज पार उड़ चलें सभी l1l

कम्पित काया को संयत कर घर की देहरी पर धरे पांव
दो कदम बढ़े पगडंडी पर छूटा पीछे अब मेरा गांव ।२।

अनजान डगर पर निकल पड़ी हूं जिसका कोइ छोर नहीं
पग कोमल पर विश्वास प्र बल टूटेगी अब ये डोर नहीं।३।

कभी सुना था गगन पार है परियों का एक सुन्दर देश
प्रेम भाव से परिपूरित जन ही पाते हैं वहां प्रवेश ।4l

मन में है एक आस यही मैं भी नन्ही सी बन जाऊं
नन्हें-नन्हें पंख लगा कर परी-लोक को उड़ जाऊं।

— लता यादव

लता यादव

अपने बारे में बताने लायक एसा कुछ भी नहीं । मध्यम वर्गीय परिवार में जनमी, बड़ी संतान, आकांक्षाओ का केंद्र बिन्दु । माता-पिता के दुर्घटना ग्रस्त होने के कारण उपचार, गृहकार्य एवं अपनी व दो भाइयों वएकबहन की पढ़ाई । बूढ़े दादाजी हम सबके रखवाले थे माता पिता दादाजी स्वयं काफी पढ़े लिखे थे, अतः घरमें पढ़़ाई का वातावरण था । मैंने विषम परिस्थितियों के बीच M.A.,B.Sc,L.T.किया लेखन का शौक पूरा न हो सका अब पति के देहावसान के बाद पुनः लिखना प्रारम्भ किया है । बस यही मेरी कहानी है

One thought on “गीत: मैं भी पंछी बन जाऊं

  • राज किशोर मिश्र 'राज'

    लाजवाब सृजन नमन आदरणीया

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