ग़ज़ल : कब आएँगे अच्छे दिन
जतन किए बिन, सोच रहे जन, कब आएँगे अच्छे दिन।
पैराशूट पहन क्या नभ से, कूद पड़ेंगे अच्छे दिन?
जब तक हैं ये सुनो बंधुवर, बँधे खास के खूँटे से
आम जनों से भला किस तरह आन जुड़ेंगे अच्छे दिन ?
कलमें घिस-घिस थके नहीं क्या? हक़ पाने हथियार बनो
हाथ जोड़ सिर झुका बात तत्काल सुनेंगे अच्छे दिन।
हल न हिलें, ना बैल चलें, हों खेत खड़े बिन पानी-खाद
बस ज़ुबान भर चलने से क्या उग आएँगे अच्छे दिन?
खुद ही किया पलायन घर से, गाँव-गंध-माटी को छोड़
खुद से नज़र मिला पूछो अब, कब लौटेंगे अच्छे दिन।
कर्म पूजना छोड़ चले हैं, धर्म पूजने मंदिर आप
फूल चढ़ा देने से ही क्या प्रगट भएँगे अच्छे दिन?
जो गृह-नीति न सुलझा पाते, राजनीति की करते बात
कुछ दिन काबिज़ हों, हाल उनका, तब पूछेंगे अच्छे दिन
सोने वाले सावधान हो! करता रहा इशारा काल
जागेंगे जब आप! ‘कल्पना’ तब आएँगे अच्छे दिन
— कल्पना रामानी
वाह कल्पना रमानी दी बहुत सार्थक कटाक्षपूर्ण ग़ज़ल लिखी है बधाई आपको |आपको यहाँ देखकर बहुत अच्छा लगा मैं तो हाल ही में जुड़ी हूँ |
वाह राजेश, तुम्हें यहाँ पाकर मुझे भी बहुत अच्छा लगा। यहाँ जुड़े मुझे काफी समय हो चुका है। ग़ज़ल आपको अच्छी लगी, बहुत खुशी हुई। बहुत बहुत धन्यवाद