कविता
हे कविता तेरा स्वरूप
कितना निर्मल कितना निर्झर
झरने सी झंकार लिए,
चलती हो विह्वल
कवि के ह्रदय की छ्न्द गीतिका,
प्रेम मधुर शृंगार नायिका
अलंकार रसना रस में,
निकल पड़ी मग नवल नवेली,
भाव भंगिमा दुल्हन जैसी
थिरक – थिरक पग रखती
आज प्रणय की शुभ बेला में,
कवि का वरण जो करती
अंत: करण उद्गार लिए,
मोती सी चमक चमकती
आलोकित कविता कर देती
नभ सूरज चाँद सितारे