कविता- बेरंग फागुन की तरह
बिखरी हुई कविताओं के साथ ,
यूँ ही जब होती हूँ दो-चार
अनायास ही बढ़ जाती है ललक
कुछ नया व् अप्रतिम रंग भरने की ..!
पर कुछ कशमकश ,,
जो चलते हैं संग-संग
कुछ उलझ गये,जो कभी ना सुलझे,
कुछ भटक गये,जो कभी ना मिले ,,,
खो गए हैं जो दुनियां की भीड़ में भविष्य की कामना लिए
अक्सर उन्हें याद कर ह्रदय होता है ,,
सावन-भादो …..!!
आशा और विश्वास की परवरिश में ही रीत गये सब सपने ,,
ठहर गये,उलझते -बिखरते निर्निमेष पल ,,
उम्मीदों और ख्वाबों की धुंध उतरने लगी कुछ इस तरह तन्हा,,
जैसे मुश्किल हो खुद की प्रतिबिम्ब भी देखना ,,
रह गई है कई अधूरी और अनजानी एहसास ,,,,
सूखे सावन और बेरंग फागुन की तरह ….