ग़ज़ल
जो गलत है वही सही क्यूँ है ।
आदमी इतना मतलबी क्यूँ है
कौन सी हो गई खता मुझसे
मौत जैसी ये जिंदगी क्यूँ है ।
इश्क में सब लुटा दिया फिर भी
उनकी नजरों में बेरुखी क्यूँ है ।
मैं जहाँ को जला के रख दूंगा
आँख में उसकी फिर नमी क्यूँ है ।
रंग रिश्तों का जम नही पाता
धर्म घर – घर में दुश्मनी क्यूँ है ।
— धर्म पाण्डेय