प्यारी माँ
तीरथ माँ बाप को कभी करा न सका
कभी श्रवण कुमार कहला न सका।
छाती सुखा ली उसने मुझे पिलाकर
मैं बकरी का दूध भी दिला न सका।
गीले बिस्तर पर करवटे ली रात भर
मैं टूटी खाट भी उसे सुला न सका।
भूखी रहकर मुझे खिलाये व्यंजन
मैं उसे जी भरके भी अफरा न सका।
आशियाना भी बेचा पढ़ाने के खातिर
अधिकारी बनके भी काम आ न सका।
छटपटाती रही बीमारियो के चंगुल में
मैं कमबख्त दवा भी दिला न सका।
मैं सोचकर गर्वित हूँ उसकी वीरता
पर बेदर्द जमाना भी उसे डिगा न सका।
— दीपक गांधी