ग़ज़ल
खुद-ब-खुद यह जिंदगी आसां डगर हो जाएगी
मिलके चलने से यह मस्ती का सफर हो जाएगी
जिन छतों पर मुद्दतों से ढेर सा मलबा पड़ा
वह इमारत तय है एक दिन खंडहर हो जाएगी
चरमराती कुर्सियों पर गर वजन यूं ही बढ़ा
तय है यह भी हादसों की ही नजर हो जाएगी
हां मगर जागे ना अब भी साथियो यह तय रहा
सुबह आएगी नहीं पर दोपहर हो जाएगी
मजहबी उन्माद की जड़ वक्त रहते काट लो
वरना यह विषबेल भी शायद अमर हो जाएगी
— मनोज श्रीवास्तव, लखनऊ