सुबह दोपहर शाम वही है और रातों का वही हाल है कुछ भी नया नहीं है यारों कैसे कह दें नया साल है चारों तरफ सुशासन फैला जनता त्रस्त मस्त सब नेता टोपी लगा मुखौटा पहने जिसका जो मन हो कह देता गलती पर गलती कर कहते यह विपक्ष की नई चाल है कुछ भी […]
Author: *डॉ. मनोज श्रीवास्तव
वर्णमाला ज्ञान
अ से अक्षर ज्ञान बना है आ से है आदर्श बना इ से इमली ई से ईख उ से उत्तम दर्श बना ऊ से ऊंट है कूबड़ वाला ए से अक्षर एक बना ऐ से ऐजी ओ से ओजी अं से है अंगार बना ऋ से ऋषियों के द्वारा ही सभी स्वरो ज्ञान मिला क […]
मुक्तक
दीपोत्सव है मन आल्हादित दिव्य मुहूर्त का अभिनंदन है दिव्य अयोध्या बुला रही है बहुत वहां जाने का मन है सतत सत्य के दीपक जलकर सारे जग को बतलाते हैं मिटना अंधकार की सत्ता होना तय अब परिवर्तन है – मनोज श्रीवास्तव
कविता
जो गया यहाँ से दुनिया से वह भी तो नहीं बता पाता कोई रोक नहीं पाता उसको जाने वाला जब भी जाता बस स्मृतियां रह जाती हैं जो अपनों को अकुलाती हैं फिर रंग बिरंगी दुनिया का यह माया जाल है छा जाता पढ़ रखा किताबों में हमने है स्वर्ग कहीं है नर्क कहीं पर […]
गीतिका
शाख से टूटे हुए पत्ते बताते हैं व्यथा कल हमारे दम से रौनक थी इसी गुलजार में और सूखे फूल भी कहते हैं अपनी दास्तां हम बहुत महंगे बिके थे कल इसी बाजार में था कोई पुरनूर चेहरा भी हमारी बज्म में तय है छप जाएगा यह भी एक दिन अखबार में दोस्तों इस गलतफहमी […]
मुक्तक
तीर्थ स्थल में या मंदिर मेंजो अश्लीलता दिखाएगा वह असभ्य अपने कर्मों का तुरत वहीं फल पाएगा संस्कार मर्यादा भूले झूल रहे हैं कामुक झूले दुर्गंधित करते समाज को समय सबक सिखलाएगा — डॉ./इं. मनोज श्रीवास्तव
बिगड़े बोल सियासत के
तोड रहे सब मर्यादाएं बिगड़े बोल सियासत के देखो क्या क्या रंग दिखाए बिगड़े बोल सियासत की सबसे ऊपर राष्ट्र हमारा नहीं ध्यान में रखते हैं देखो किस से क्या करवाएं बिगड़े बोल सियासत के जनता भेड़चाल कहलाए पर नेता भी उधर चले भैंस के आगे बीन बजाएं बिगड़े बोल सियासत के गर्मी छाई है […]
मैं अगम अनाम अगोचर हूँ
मैं अगम अनाम अगोचर हूँ ये सृष्टि मेरी ही परछाई मैं काल पुरुष मैं युग द्रष्टा मानव की करता अगुआई मेरी भृकुटि स्पंदन से आती हर युग मे महा – प्रलय मैं अभ्यंकर मैं प्रलयंकर हर युग मे मैं ही विष पाई मैं सतयुग का हूँ सत्य स्वयं जो शाश्वत है अविनाशी है त्रेता युग […]
बोध कराने आया हूँ
हिन्दू चिंतन दर्शन क्या हैं मैं बोध कराने आया हूँ गौरव शाली अपने अतीत की याद दिलानें आया हूँ मैं राम कृष्ण की धरती का इतिहास बताने आया हूँ सदियों से सोये हिन्दू का सम्मान जगाने आया हूँ धनपति कुबेर नत मस्तक था रघु के धनुः की टंकारो से विध्वंश दक्ष का यज्ञ हूआ शिव […]
मुक्तक
जन जीवन का आधार सतत वह ज्योति पुंज सविता ही है बंजर उपवन करने वाली जलधार सलिल सरिता ही है जो राह दिखाती युग युग से आक्रांत क्लांत मानव मन को घनघोर तिमिर में आशा की वह एक किरण कविता ही है जो विपदाओं में सहला दे हम उसको कविता कहते हैं जो व्याकुल मन […]