बचपन कहां गया
बनकर नदिया की धार प्रबल आंखों से हो गया झट ओझल
हम खुद से करते हैं सवाल जाने वह बचपन कहां गया
ना कोई फिकर कुछ पाने की ना चिंता कुछ बन जाने की
अपनी छोटी सी दुनिया थी मन मस्ती में इतराने की
परवाह न थी धन दौलत की जाने भोलापन कहां गया
हम खुद से करते हैं सवाल जाने वह बचपन कहाँ गया
क्या गजब दौर था चाहत का दीवानेपन की राहत का
एक झलक यार की दिख जाए जज्बा होता था वहशत का
मिल गये किसी भी मोड़ पे हम रह जाते थे खामोश कदम
अब मन में होता है मलाल जाने वह यौवन कहां गया
हम खुद से करते हैं सवाल जाने वह बचपन कहां गया
जीवन की संध्या घिर आई हो गई विदा है तरुणाई
सूनापन और अकेलापन यादों की बज रही शहनाई
हम किस को याद करें भूले किससे मन की परते खोलें
जिस को बहला देती यादें जाने अपना मन कहां गया
हम खुद से करते हैं सवाल जाने वह बचपन कहां गया
— डॉक्टर इंजीनियर मनोज श्रीवास्तव