संस्मरण

मेरी कहानी 152

घर में अब रौनक हो गई थी। पोते का नाम हम रखना चाहते थे लेकिन संदीप और जसविंदर ने कुछ और ही सोच रखा था। इस में हमें किसी इतराज़ की जरुरत नहीं थी क्योंकि हर माँ बाप को अपने बच्चे का नाम रखने का चाव होता है और आज कल तो बच्चे किताबें खरीद लेते हैं, जिन में हज़ारों नाम होते हैं। अक्सर यहां के बहुत से बच्चे अंग्रेज़ी नाम रखने का शौक रखते हैं। बेटे बहू ने बहुत बड़ा नाम रखा था लेकिन अभी तक सभी उस को छोटे नाम से ही बुलाते हैं और वोह है AARON BHAMRA लेकिन भमरा भी कोई नहीं बोलता, सभी उस को ऐरन कह कर ही बुलाते हैं और यह नाम बोलना भी आसान है क्योंकि इस में अरुण नाम की झलक भी आती है। कुछ भी हो यों ही ऐरन रोता तो सभी उस को चुप्प कराने की कोशिश में लगे रहते। नए नए बच्चे की देख भाल करने में हर दम वक्त की जरुरत होती है, ख़ास कर रात को। इस से माँ को बहुत बेआरामी होती है लेकिन यहाँ तो कुलवंत मौजूद थी और बहुत से काम वोह कर देती थी । नए नए बच्चे के कपडे पता नहीं कितनी दफा बदलने पड़ते हैं और इन के लिए तो वाशिंग मशीन और ड्रायर भी था और डिस्पोज़ेबल नापीओं के बंडल हर वक्त जमा रहते थे।

कोई वक्त था जब इंडिया में तो घर में ही बच्चे को टटी पिछाब करा देते थे और यहां जब हम ने बच्चों को पाला था तो उस समय डिस्पोज़ेबल नापीआं भी होती नहीं थीं, सिर्फ छोटे छोटे टॉवल होते थे जो खराब होने पर धोने पड़ते थे। उस समय वाशिंग मशीन का आम रिवाज़ नहीं हुआ था और सेंट्रल हीटिंग भी नहीं होती थी। हर रोज़ नापीआं धो धो कर कुलवंत के हाथ खराब हो गए थे और डाक्टर से क्रीम ले कर लगाती रहती थी। सेंट्रल हीटिंग सिर्फ हस्पतालों में ही होती थी। किसी किसी घर में गैस हीटर ही होते थे, ज़्यादा घरों में तो कोयले की आग ही होती थी। हर घर में हर कमरे में दीवार के साथ अंगीठियां बनी हुई थीं। कुछ लोग बैड रूम में भी अंगीठी में कोयले डाल कर कमरा गर्म करते थे लेकिन सिटिंग रूम में तो हर घर में सारा दिन कोयले दग दग करते ही रहते थे और कमरा बहुत गर्म होता था। सब घरों की चिम्निओं में से धुआं निकलता रहता था। इस में मिहनत भी करनी पढ़ती थी, हर सुबह उठ कर अंगीठी को साफ़ करके, राख निकाल कर कूड़े के ढोल में फैंक देना और नए कोयलों से अंगीठी भरनी और साथ ही छोटी छोटी लकडीयों को आग लगा धीरे धीरे हवा देना। जल्दी ही कोयलें जलने लगते। यह पुरातन ढंग था लेकिन इस में भी एक मज़ा सा होता था, कमरा खूब गर्म हो जाता था।

हर घर के पीछे एक कोल रूम होता था जो कोयलों से भर लेते थे । एक टन कोयले का आर्डर दे देते और लॉरी वाले कोयले के बैग अपनी पीठ पीछे रख रख कर घर की पिछली ओर चले जाते और कोल रूम कोयले से भर जाता। अंगीठी के सामने कपडे सुखाने के लिए एक पिंजरा सा रख देते थे जो तीन तरफ से बन्द होता था, इस पर कपडे रख देते थे। सभी औरतें कपडे अपने हाथों से धोती थीं। जिन के घर छोटे छोटे बच्चे ज़्यादा होते थे, उनके घर तो सारा दिन कपडे सूखते ही रहते थे। बाहर तो गर्मियों के तीन चार महीने ही कपडे सूखते थे। उन दिनों ठंड भी बहुत होती थी। सड़कों के दोनों तरफ बर्फ जमी रहती थी। जब स्नो पढ़ती थी तो छतें एक एक फुट बर्फ से ढकी रहती थीं और जब कुछ गर्मी हो जाती, जिस को THAW बोलते थे तो छतों से बर्फ के ढेर गिरने लगते थे क्योंकि सभी छतें स्लेटों से एक ऐंगल में बनी हुई हैं। इतनी ठंड होने की वजह के कारण जिन के पास गाड़ीआं थीं, वोह भी सुबह उठ कर पहले गाड़ी पर से बर्फ खुरचते, विंड स्क्रीन पर कुछ गर्म पानी डाल कर साफ़ करते और फिर जब कार स्टार्ट करते तो कार कई दफा स्टार्ट ना होती और दो चार आदमी कार को धक्का लगाते। उस वक्त कार के इंजिन पुरातन डिज़ाइन के होते थे, जिन के इंजिन ऐसे डिज़ाइन किये हुए थे कि डिस्ट्रीबिउटर में स्पार्क देने के लिए पुआएंट होता था और बहुत दफा डिस्ट्रीबिउटर की कैप खोल कर उस में एक स्पैशल किसम का सप्रे करना पड़ता था और तब जा कर गाड़ी स्टार्ट होती थी, अब तो हर कार में इलैक्ट्रॉनिक इग्निशन है और एक चाबी से ही गाड़ी स्टार्ट हो जाती है।

बात कर रहा था, बच्चों के कपडे सुखाने की तो यह कपडे सारा दिन उस पिंजरे जैसे स्टैंड पर सूखते रहते थे । इस अंगीठी का बहुत आराम होता था लेकिन कई दफा इस अंगीठी को साफ़ भी करना पड़ता था, जिस के लिए कुछ गोरे यह काम करते थे, जिन को चिमनी स्वीप कहते थे। यह गोरे साइकल पर चिमनी साफ़ करने वाले बुरुश और उन के साथ जोड़ने वाले बहुत से डंडे साइकल पर बाँध कर रखते थे, इन गोरे लोगों के मुंह सारा दिन चिमनियां साफ़ कर कर के काले हो गए होते थे। यह गोरे साइकल पर जाते जाते होक्का देते रहते थे, चिमनी स्वीप ! चिमनी स्वीप ! और जिस किसी को जरुरत होती वोह उसे बुला लेता। जब हम आये थे तो उस वक्त चिमनी साफ़ करने के पांच शिलिंग लेते थे। हमारे एरिए में जो गोरा आता था, वोह भी एक मस्त अँगरेज़ ही था, वोह साइकल चलाता ऊंची ऊंची गाता भी रहता था जो हम को समझ नहीं आता था। जब वोह हमारे घर आता था तो चिमनी में एक बड़ा सा ब्रश डालता था जिस के साथ कोई तीन फुट लंबा बैंत का डंडा होता था और हर डंडे के आखिर में पेच होते थे। जब एक डंडा चिमनी में घुसेड़ दिया जाता तो वोह उस के साथ हाथ से एक और डंडा लगा कर उस के पेच कस देता और इसी तरह एक एक करके सभी डंडे चिमनी में जाइ जाते और ब्रश को घुमा घुमा कर वोह चिमनी साफ़ करता जाता और आखर में यह डंडा सारी चिमनी में घूम जाता। घर की ऊंचाई के बराबर जो कोई तीस फुट होती, इतना डंडा हो जाता। जब चिमनी सारी साफ़ हो जाती तो एक एक करके डंडों के पेच खोलता जाता और आखर में ब्रश को बाहर निकाल लेता। चिमनी से निकली इस कालख का ढेर लग जाता जो वोह खुद ही इस कालख को एक बड़ी बाल्टी में डाल कर बाहर गार्डन की क्यारीओं में डाल देता। यह गोरा हर दफा बताता रहता था कि यह चिमनी की राख प्लांट के लिए बहुत अछि होती है।

अब यह सभ बातें गुज़रे ज़माने की थीं, अब तो हर काम आसान था। कपडे वाशिंग मशीन से निकाल कर ड्रायर में डाल देते और आधे घंटे में सूख जाते। कुलवंत के पास तो अब समय ही समय था और कभी मैं ऐरन को अपने हाथों में उठा लेता। कभी कुलवंत नापीआं बदल देती और जब कभी संदीप काम से आया होता तो वोह नापी बदल देता। आज के लड़के अपने बच्चों को साफ़ करने में ज़रा नहीं हिचकचाते जब कि हमारी जेनरेशन के आदमी ऐसा नहीं करते थे। आज तो जब पत्नी मैटरनिटी वार्ड में बच्चे को जनम दे रही होती है तो पति बीवी के पास खड़ा होता है। हमारे ज़माने में ऐसा नहीं होता था। आज यह सब हो रहा है, कारण यह ही है कि पति को पता चले कि औरत उस वक्त कितनी मुश्किल घड़ी में होती है और इस से पत्नी को भी पति के पास होने से कुछ हौसला हो जाता है। घर में नया नया बच्चा आने से माँ को हम कुछ ग़िज़ा बना कर देते हैं जिस को पंजाबी लोग दाबड़ा कहते हैं। यहां की पैदा हुई बहुत सी लड़कियां इस को खाती नहीं हैं क्योंकि उन को ऐसी चीज़ स्वाद नहीं लगती लेकिन कुछ लड़कियां खा भी लेती हैं। जसविंदर को ऐसी चीज़ें खाने से कोई हिचकचाहट नहीं थी। इसी लिए कुलवंत नें यह ग़िज़ा बना दी,जिस में काफी घी, आटा, हर तरह के नट्ट सीडज़, किशमिश और सौंफ जैसी चीज़ें थीं। ऐसी चीज़ें क्योंकि यहां बहुत मिलती हैं और इंडिया से ज़्यादा अछि कुआलिटी की मिलती हैं, तो दिल खोल कर यह चीज़ें डाली गई।

पुरातन समय से चली आ रही यह रीत में बहुत कुछ छिपा हुआ है। दाबड़ा विटमिन भरपूर पूर्ण खुराक है और यह किसी भी माँ को तुरंत रिकवरी में मददगार साबत होता है। आज के युग में डाक्टर ब्लड टैस्ट करके बताते हैं कि कोई रोग का कारण शरीर में कोई ख़ास विटमिन की कमी के कारण है लेकिन पुरातन युग में आयुर्वेद का गियान ही निर्धारित करता था कि किसी रोग के दौरान कौन सी खुराक खानी चाहिए। यह तो बचपन में मैंने भी देखा है कि हमारे गाँव में जब सोहन लाल हकीम या यमुना दास हकीम से दुआई लेते थे तो वोह साथ में यह भी बताता था कि कौन सी खुराक खानी थी। आज डाक्टर फिर पुरानी बातों को धियान से देखने लगे हैं। बहुत सालों से हमें यह ही बताया जाता रहा है कि घी माखन हार्ट अटैक और ब्लड प्रेशर का कारण बनता है और हम लो फैट मिल्क, मार्जरीन और सनफ्लावर ऑयल इस्तेमाल करते चले आ रहे थे लेकिन आज फिर कुछ कुछ कहने लग पड़े हैं कि घी माखन इतना बुरा नहीं है और सिर्फ कार्बोहाइड्रेट कम कर देने चाहिए। कुछ भी कोईं कहे, मुझे तो घी और थोह्ड़ा सा माखन बहुत पसंद है और मार्जरीन को बिलकुल पसंद नहीं करता और घी मुझे बहुत फायदेमंद भी साबत होता है। इस से कब्ज़ बिलकुल नहीं होती और आयुर्वेद में यह भी बताया गया है कि कब्ज़ बहुत बीमारीओं की जड़ है।

यहां हौलैंड ऐंड बैरेट एक बहुत बड़ी कंपनी है, जिसकी दुकानें इंगलैंड के हर शहर में हैं। इसमें सब देसी चीज़ें मिलती हैं, कोई अंग्रेज़ी दुआई नहीं मिलती । इस में ख़ास बात यह है कि जो चीज़ें इंडिया में हमको आम मिल जाती है, वोह इन दुकानों में बहुत म्हन्घी मिलती हैं और इनको ज़्यादा गोरे लोग ही लेते हैं। गेंहूँ का ऊपरला छिलका जिसको बूरा कहते हैं, वोह यहां पैकटों में मिलता है। हमारे ज़माने में तो यह बूरा पछूओं को डालते थे लेकिन यहां इस बूरे को बहुत गोरे कॉर्नफ्लेक्स या अन्य सीरियल में एक दो चमचे डाल कर खाते हैं। कुलवंत तो हमेशा जब गेंहूँ का आटा गूँधती है तो उसमें मुठी भर बूरा डाल देती है और बुरे को यहां ब्रैन बोलते हैं, जिस के ब्रैन फ्लेक्स भी मिलते हैं जिस में बूरा ज़्यादा होता है। इस बूरे में बी विटमिन बहुत होते हैं। एक बात और कि दही में जो पानी होता है, बहुत लोग उस को निकाल कर फैंक देते हैं लेकिन इस में प्रोटीन की मात्रा बहुत होती है जिस को यहां वेअ WHEY कहते हैं। हौलैंड ऐंड बैरेट की दुकानों में वेअ पाऊडर के बड़े बड़े पैकेट मिलते हैं। जब हम पनीर बनाते हैं तो उस में से निकला हुआ पानी ही WHEY है और इस को ही फैक्ट्री में पाऊडर में बदला जाता है। क्योंकि पछमी देशों में चीज़ बहुत खाई जाती है, इस लिए जाहर है चीज़ बनाते वक्त इस में से निकला हुआ पानी भी बहुत होगा, जो WHEY पाऊडर बनाने के काम आता है। यह पाऊडर प्रोटीन से भरपूर है और हम लोग यूं ही फैंक देते हैं।

जसविंदर के लिए यह विटमिन भरपूर दाबड़ा ख़तम नहीं होने दिया गया और तुरंत रिकवरी भी हो गई। इन देसी चीज़ों में अपार शक्ती होती है और हम इन को बहुत मान्यता देते हैं। जसविंदर घर का काम करने में कुलवंत से कोई कम नहीं है। कुलवंत के रोकने पर भी वोह घर के काम में मसरूफ रहती थी। वैसे भी दाबड़ा और अन्य देसी खुराक की वजह से जसविंदर की सिहत फिर पहले जैसी हो गई और संदीप और जसविंदर दोनों पति पत्नी ऐरन को ले कर बाहर जाने लगे और हमें उन को बाहर जाते देख बहुत ख़ुशी महसूस होती क्योंकि हमारा परिवार आगे बढ़ रहा था। आज इतिहास फिर से रिपीट हो रहा था। जब बेटियों के बच्चे हुए थे तो हम उनके सुसराल को घी, मेवे और बच्चों के लिए कपडे लेकर जाते थे और आज हमारे घर जसविंदर के ममी डैडी यही चीज़ें ले कर आये थे और इस के बाद हमारी बेटीयाँ आईं। हर रोज़ कोई ना कोई मेहमान आ जाता और घर में रौनक हो जाती। ऐसा लगता था, जैसे सारा घर ख़ुशी में मुस्करा रहा हो।

चलता. . . . . . . . . .

12 thoughts on “मेरी कहानी 152

  • विजय कुमार सिंघल

    भाई साहब, इस कड़ी को आज फिर ध्यान से पढ़ा. आपने सही लिखा है कि घी स्वास्थ्य के लिए बहुत अच्छा है. गाय का घी अमृत है. सही मात्र में खाने पर यह शरीर को रोगमुक्त रखता है. हम बाबा रामदेव का बनाया हुआ गाय का घी ही खाते हैं और गाय का ही दूध लेते हैं.

    गेहूँ के छिलके के बारे में आपने जो लिखा है वह भी सत्य है. यहाँ इसे चोकर कहा जाता है. हमारे घरों में रोटी बनाते समय आते को छानकर चोकर को निकाल दिया जाता है, जो गलत है. चोकर विटामिन बी की खान है. प्राकृतिक चिकित्सा केन्द्रों में सब्जी में भी चोकर ऊपर से डालकर खिलाया जाता है.

    • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

      विजय भाई , हमें यह सब हमारे स्वर्ग्य गियानी जी की संगत में रहने के कारण मिला है, जो हर वक्त लाएब्रेरी से सिहत के सम्बन्ध में किताबें पढ़ा करते थे . उस वक्त हम जवान थे और बहुत दफा हम उन की बातों को हंस कर ताल देते थे लेकिन धीरे धीरे हम को इस की समझ आई . जब तक इंसान इस धरती पर है, रोग भी होंगे लेकिन इस से कैसे निपटा जा सकता है, यह अपनी अपनी सोच है . आप हैरान होंगे किः हमारे घर में विवाह शादीओं की वजह से मठाई के डिब्बे आते ही रहते हैं लेकिन हम इस में से एक दो टुकड़े ले के शेष मेरी पत्नी सारी मठाई अपने सेंटर में ले जाती है और अपनी सखिओं को खिला देती है और बहुत दफा तो हम इसे कूड़े में फैंक देते हैं . कारण सिम्पल है ,यह सारी मथाई सिहत के लिए मीठी ज़हर है .

    • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

      विजय भाई , हमें यह सब हमारे स्वर्ग्य गियानी जी की संगत में रहने के कारण मिला है, जो हर वक्त लाएब्रेरी से सिहत के सम्बन्ध में किताबें पढ़ा करते थे . उस वक्त हम जवान थे और बहुत दफा हम उन की बातों को हंस कर ताल देते थे लेकिन धीरे धीरे हम को इस की समझ आई . जब तक इंसान इस धरती पर है, रोग भी होंगे लेकिन इस से कैसे निपटा जा सकता है, यह अपनी अपनी सोच है . आप हैरान होंगे किः हमारे घर में विवाह शादीओं की वजह से मठाई के डिब्बे आते ही रहते हैं लेकिन हम इस में से एक दो टुकड़े ले के शेष मेरी पत्नी सारी मठाई अपने सेंटर में ले जाती है और अपनी सखिओं को खिला देती है और बहुत दफा तो हम इसे कूड़े में फैंक देते हैं . कारण सिम्पल है ,यह सारी मथाई सिहत के लिए मीठी ज़हर है .

  • राजकुमार कंडू

    आदरणीय भाई साहब नमस्कार ! आज जयविजय के माध्यम से आपसे जुड़ने का सौभाग्य मिला ।श्रद्धेय लीला बहनजी की कृपा से मैंने पहले ही आपकी आत्मकथा आंशिक पढ़ी है जो बहुत बढ़िया और प्रेरक लगी । आज का संस्मरण भी आपने दिल खोलकर लिखा है । आज के परिदृश्य के साथ ही आपने पुरानी बातों का बहुत ही रोचक तरीके से मिश्रण किया है ।बहुत बढ़िया लेखन के लिए धन्यवाद !

    • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

      राज कुमार भाई साहब ,पहले तो मैं आप का जय विजय पर दस्तक देने के लिए आप का स्वागत करता हूँ और दुसरे आप मेरी जीवन कथा पढ़ रहे हैं, मुझे इस से बहुत ख़ुशी मिल रही है . मैं कोई लेखक नहीं हूँ, बस सिर्फ अचानक लीला बहन से संपर्क हो जाने से ही लिखना शुरू हो गिया . लीला बहन हर एक को उत्साहात करती हैं . मेरी कहानी एक सधाह्र्ण आम आदमी की कहानी है और यह हर एक की अपनी अपनी होती है .यह जरुरी नहीं किः ऑटोबायोग्राफी बड़े लोगों की ही मनौप्ली है, इसे एक रिक्शा वाला भी लिख सकता है , यह मैंने अब जाना है .शाएद लीला बहन ने आप को मेरे बारे में बता ही दिया होगा कि ना तो मैं बोल सकता हूँ और ना बाहर जा सकता हूँ क्योंकि मैं स्टैंड के सहारे घर में ही कुछ चल फिर सकता हूँ लेकिन इस के अर्थ यह बिलकुल नहीं हैं मैं अपने आप को एक डिसेबल समझ कर मौजुस हो चुक्का हूँ . सारी जिंदगी मुझे कोई ऐसा इंसान नहीं मिल सका जिस के साथ मैं अपने दिल की बातें शेअर कर सकता सिर्फ मार्च २०१४ में लीला जी के संपर्क में आने से मुझे महसूस हुआ कि जिस इंसान से मैं खुल कर कुछ कह सकता हूँ यह लीला बहन ही है . आप के कुछ कॉमेंट मैंने पड़े हैं और यह जान पाया हूँ कि आप की लेखन कला में एक जादू है . मैंने तो हिंदी भी इतनी पढ़ी नहीं थी लेकिन दो साल में कुछ कुछ सीख गिया हूँ . अभी भी बहुत दफा जो मैं लिखना चाहता हूँ, उस के सही शब्द मुझे हिन्दी में मिलते नहीं क्योंकि मैं जीवन के १९ साल पंजाब में ही रहा हूँ और जब हिन्दी हम को पढ़ाई जाने लगी थी तो हिन्दी हमारे लिए अंग्रेज़ी सीखने के बराबर थी .यही वजह है किः जब मैं लिखता हूँ बिलकुल सीधी साधी हिंदी में ही लिख पाता हूँ . उम्मीद है, अब से आप के कलम दर्शन होते रहेंगे .

  • मनमोहन कुमार आर्य

    Namaste avam dhanyawad aadarniy Shri Gurmail Singh jee. Aaj kee kahani bhee interesting and anek anubhavon se purit hai. Ayurved me Go-ghrit ko jeevan yaa aayu kaa aadhar bataya gaya hai jo ki purntah satya hai. Ek bar ek vidwan ne pravachan me kaha tha ki shashtron me ghee khaane kaa nahi peene kaa vidhan hai. Is par unhone bahut mahatvapurn baate Ayurved granthon ke aadhar par bataai thee. Mujhe bhee bachpan se dudh va ghee bahut priy hai. Parantu bachpan me sahar me rahne ke kaaran aur arthik sthiti achchee na hone ke kaaran adhik dudh pee na sake. Haan, hamari maata jee ne mere liye bakri va gaay kaa bhee kuch samay paalan kiya, atah mujhe kuch samay inke dudh ka swad lene kaa avasar mila. Bakri ke dudh kaa bachchon kee budhi par achchaa asar padta hai. kahani bahut achchee lagi. Hardic dhanyawad.

    • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

      मनमोहन भाई ,धन्यवाद . हमारी पुरातन सभियता में आयुर्वेद की देण बहुत है लेकिन समय क्योंकि एक जगह खड़ा नहीं होता और आज के समय में पर्दूष्ण परधान है और बहुत बिमारीआं ऐसी हैं जी को अंग्रेज़ी दवाईओं के बगैर आराम नहीं आता . जब से हाई ब्लड प्रेशर का बोल बाला हुआ है, सारी दुनीआं में डेअरी प्रोडक्ट कम खाने का मशवरा दिया गिया है और इस के औल्तर्नेतिव चीज़ें यहाँ बहुत मिलती हैं जो कई परकार के तेल से बनती हैं लेकिन मैं शुद्ध देसी घी और गाये का दूध रोज़ इस्तेमाल करता हूँ और मेरा कोलेस्ट्रोल बिलकुल नॉर्मल है .
      बकरी का दूध इंडिया में तो कभी कभी पी लेते थे लेकिन यहाँ मिलता तो है मगर मुझे स्वादिष्ट नहीं लगा .

      • विजय कुमार सिंघल

        बकरी का दूध बहुत छोटे बच्चों के लिए तो ठीक है जिनकी माता को दूध पर्याप्त न बनता हो. परन्तु बड़ों को गाय का दूध ही लेना चाहिए. कहा जाता है कि बकरी का दूध पीने वाले कायर होते हैं.

  • लीला तिवानी

    प्रिय गुरमैल भाई जी, एक-एक चीज़ का बारीकी और रोचकता से वर्णन करना आपके लेखन की विशेषता है, जिससे पढ़ने का आनंद असीम हो जाता है. कहानी की एक और रोचक कड़ी के लिए आभार.

    • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

      लीला बहन , आप मेरी लेखनी को इतनी महानता देती हैं, मुझे बहुतन पर्संता होती है . बहुत बहुत धन्यवाद .

  • विजय कुमार सिंघल

    आपकी कहानी की यह कड़ी भी बहुत रोचक है.

    • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

      धन्यवाद विजय भाई .

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