ग़ज़ल
रस्म-ए-उल्फत को इस तरह निभाया मैंने,
सुना जो नाम तेरा सर को झुकाया मैंने
लहू-लहू था बदन चाक गिरेबां था मगर,
अपनी आँखों से न इक आँसू बहाया मैंने
ख्वाहिशें यूँ तो बहुत सी न हो सकीं पूरी,
पर किसी के आगे हाथ न फैलाया मैंने
कोई बाकी नहीं एहसान जिंदगी तेरा,
अपनी साँसों से तेरा कर्ज़ चुकाया मैंने
चार कंधे हुए लाज़िम सफर-ए-आखिर में,
वरना बोझ अपना खुद ही उठाया मैंने
— भरत मल्होत्रा
बहुत खूब कहा मल्होत्रा साहब