हास्यव्यंग्य : कविता के अखाड़े में
नागपुर, भारत के सांस्कृतिक महत्व का शहर है। इसके अनेक कारण हैं जिनमें से तीन प्रमुख कारण मैं आपको बतलाता हूँ। एक, कहते हैं कि डलहौजी ने अपनी साम्राज्यवादी ‘राज्य-हड़प’ नीति का आरंभ यहीं से किया था। जिसका पटाक्षेप सन् अठारह सौ सत्तावन के गदर के रूप में हुआ था और भारत में क्रांति के बीज का सूत्रपात हुआ। यानि कह सकते हैं कि यदि नागपुर ना होता तो देश के स्वाधीनता संघर्ष का मार्ग भी प्रशस्त न हुआ होता। दूसरा, यह शहर नाग नदी जैसी महान नदी के तट पर बसा हुआ है। मैंने जबसे देखा है जिसे लोग नदी कहते हैं वह एक नाला है। चंूकि नाले की परिणीति अंत में नदी में हो जाती है, लोग इसे सम्मान से नदी कहने लगे हैं। इसमें शहर की सारी गंदगी बह कर जाती है और शहर को साफ-सुथरा रखती है। यदि यह नहीं होती तो नागपुर को भी बरसात में बाढ़ का वह सुख मिलता जो मुंबई को मिलता है। नाग नदी, नागपुर की रीढ़ हैं क्योंकि यह नागपुर के बीच से बहती है। रीढ़ की हड्डी होने से इसका महत्व और अधिक बढ़ जाता है। क्योंकि बिना रीढ़ के लोगों का कोई अस्तित्व नहीं होता। और तीसरा तथा सबसे महत्वपूर्ण यह कि इसमें ‘मैं’ रहता हूँ। एक कवि और रचनाकार! संस्कृति का संवाहक!! किसी भी नगर या शहर में कवि का होना बहुत आवश्यक है। वरना वहाँ की संस्कृति की रक्षा कैसे होगी? इस नाते प्रधानमंत्री जी को हमारे शहर को ‘स्मार्ट सिटी’ की सूची में रखना चाहिए था। संशोधन के लिए मैं महापौर जी को यह जानकारी देना चाहता हूँ कि इन महत्वपूर्ण मुद्दों की ओर प्रधानमंत्री जी का ध्यान आकर्षित कर अपने शहर को ‘स्मार्ट-सिटी’ की सूची में लाने की ओर पुनः प्रेरित करें। सुबह का भूला यदि शाम तक घर लौट आए, तो भूला नहीं कहलाता!
यहाँ कवि होते हैं इसलिए कविता भी होती है। कविता-लेखन को हमारे पूर्वजों ने एक पवित्र कर्म माना है। यह बात और है कि काव्य-लेखन का इतिहास यह सिद्ध करता है कि कवि अपने आरंभिक जीवन में एक कुकर्मी और अपवित्र जीव हुआ करता है जो कविता लिखते-लिखते कालांतर में अतिपुनीत और पवित्र आत्मा हो जाता है। मैं इस तथ्य को प्रमाणसहित सिद्ध कर सकता हूँ। अब महर्षि वाल्मीकि जी को ही लीजिए। अपने आरंभिक जीवन में क्या करते थे दद्दा? चोरी! डकैती!! लूटमार!!! आप ही बताइए क्या ये कोई महान कर्म हैं? नहीं ना। रत्नाकर डाकू के नाम से कुख्यात थे। गब्बरसिंह के पूर्वज वे ही थे। पचास – पचास मील तक उनके नाम की तूती बोलती थी। मजाल है साहब कोई बच्चा आधी रात को उठ कर चूँ भी बोल दे। ‘एकला चालो रे’ का दर्शन उन्होंने ही प्रतिपादित किया था। कभी कोई गिरोह नहीं बनाया। जो भी लूटा अपने दम पर, अपने लिए। स्वाभिमानी और परिश्रमी थे। लेकिन बाद में लाठी-कृपाण छोड़कर कविता के धंधे में आ बैठे। पराये माल को अपने कब्ज़े में पहले ही कर लिया था। बाद में अच्छा नाम कमाया रामायण लिखकर। समझदार थे। इधर राम का नाम लेकर महाकवि बने तुलसी बाबा का रिकाॅर्ड भी बहुत ठीक-ठाक न था। विवाह के बाद पत्नी रत्नावली की गोरी चमड़ी पर ऐसे आसक्त हुए कि भरी बरसात में उफनती में छलाँग दी। अच्छे तैराक न थे मुर्दे के सहारे नदी भी लाँघ गए। डूबे नहीं। आधी रात में ससुराल की छत पर लटकते हुए साँप को रस्सी समझकर पत्नी से ‘आय लव यू’ कहने धमक गए। पर यहाँ पत्नी समझदार थी। ऐसा लताड़ा चैबे जी को कि रामबोला से सीधे ‘तुलसीदास’ बन गए। कविता के पेशे में आ गए। बाद में महाकवि कहलाए। प्रेम में पिटे लेकिन कविता के पवित्र कर्म में हिट हो गए।
संस्कृत के महाकवि कवि कालिदास जी के बारे में भी उनकी मूर्खता कोक लेकर कुछ अनेक किंवदंतियाँ प्रचलित हैं। केशवदास जी का चरित्र भी ज़रा-सा ढीला ही रहा। कुएँ पर खड़ी लड़कियों ने उन्हें ज़रा-सा ‘बाबा’ क्या कह दिया महाराज का दिल टूट गया-‘चंद्रवदन मृगलोचिनी बाबा कहि-कहि जाए।’ अब वे सलमान, आमीर, सैफ, शाहरूख़ या अक्षय कुमार तो थे नहीं कि पचास की उम्र मेें भी हसीनाएँ उन्हें दिल से लगातीं। और मीरा बाई का तो कहना ही क्या? उस ज़माने में जब पत्नियाँ अपने पति का नाम तक नहीं लेती थीं एक पराए को कहती फिरती थीं कि-‘मेरे तो गिरधर गोपाल दूसरों ना कोई। जाके सिर मोर-मुुकुट मेरो पति सोई।।’ दूसरे आदमी के चक्कर मेे पड़कर अपना जीवन बर्बाद कर डाला। हद हो गयी भाई शराफ़त की! उनके द्वारा कृष्ण को लिखे हुए प्रेमपत्रों को आज पाठ्य-पुस्तकों में ‘भजन’ का सम्मान प्राप्त है। शोधार्थी उस पर डाॅक्टरेट ले रहे हैं। अब भई प्रेमी भगवान ही थे तो क्या हुआ? ये भी तो एक राजा की रानी थीं। वह भी राजपूत-राजा की। भला यह भी कोई बात हुई कि पैरों में घुंघरू पहने और संतों के बीच चलीं ठुमकने!!
अब आप ही सोचिए आज के ‘माॅडर्न इंडिया’ में भी प्रेम के अखाड़े में जहाँ एक म्यान में दो तलवारें नहीं जा सकतीं और खून-खराबा हो जाता है। तो मीरा का वह पति तो राजा था वह भी राजपूत। करेला भी और नीम चढ़ा भी। भला वह कैसे यह बर्दाश्त कर पाता? सूरदास जी के बारे में कुछ कहना बेकार है। उनके साथ टेक्निकल प्राॅबलम थी। वे जन्म से अंधे थे-दिव्यांग। उन्हेें किसी की ओर बुरी नज़र से देखने की फुर्सत ही नहीं रही। सारा जीवन गोपाल-कृष्ण को माखन खिलाने और उनकी पुंतरिया बदलने में बिता डाला। कबीर बाबा इस क्षेत्र में अपवाद रहे। क्यों? क्योंकि उन्हें लिखना नहीं आता था- ‘मसि कागद छुयो नहिं, कलम गहि नहिं हाथ।’ हथकरघा चलाते और बैठे-बैठे उस समय के उत्पाती और अलगाववादी हिन्दू-मुसलमानों को गरियाते रहते। ये दद्दा की तो बाबागिरी और दादागिरी दोनों साथ में चलती रहती थी। इनकी गालियों को उनके चेले कविता में ढाल कर पवित्र कर देते थे। साँप भी मर जाता था और लाठी भी नहीं टूटती थी। दादा तो लड़कियों के चक्कर में कभी पड़े ही नहीं। ऊपर से ‘ढाई आखर’ का प्रेमग्रंथ दान कर गए।
जो भी हो कविता लेखन एक पवित्र कर्म के रूप में हमारी संस्कृति में जाना जाता है। यूँ कहे तो अतिशयोक्ति नहीं होगी कि कविता वह गंगा है जिसमें डुबकी लगाकर अपवित्र भी पवित्र हो जाता है। मैं भी संस्कृति की इस पावन गंगा में कभी-कभी एक-दो डुबकी मार कर अपने पाप धो लेता हूँ। भाई कविता लिखना एक पवित्र कर्म हो सकता है, लेकिन कविता ‘सुनना या सुनाना’? कविता सुनना एक दुस्साहस है! और कविता सुनाना एक दुष्कर्म!! किसी कवि के हत्थे चढ़ जाइए। इतनी कविता सुनाएगा कि अच्छे-अच्छे पहलवानों को छठी का दूध याद आ जाए।
मैंने कहा ना हमारा शहर एक सांस्कृतिक शहर है। इस संस्कृति के अनुसार यहाँ पर कविता के अनेक अखाड़े हैं। सभी में अलग-अलग उस्ताद हैं। यहाँ नये-पुराने और मँजे हुए सभी प्रकार के पहलवान अपनी-अपनी क्षमता के अनुसार के दंड पेलते हैं, मुगदर घुमाते हैं और कुश्ती लड़ते हैं। इन अखाड़ों में आकर लोग अपनी कविता को सुनाने का दुष्कर्म भी करते हैं। यहाँ कविता सुनाना दुष्कर्म इसलिए हो जाता है क्योंकि ये अखाड़ेबाज़ कवि, कविता सुनाकर ऐसे गायब होते हैं जैसे गधे के सिर से सींग। बलात्कार, चोरी, डकैती और अश्लील कर्म करनेवाला अपराधी जैसे अपराध के बाद उस स्थान को जल्दी से जल्दी छोड़कर भागने की फिराक में रहता हैं वैसे ही कविता के अखाडे़ में ये दंडपेलु कवि, लंगोट समेटकर भागने की तैयारी में रहते हैं। अब आखिर में बचा इकलौता श्रोता-कवि तो वैसे ही श्रोता के अभाव में ‘वीरगति’ को प्राप्त हो जाता है। अब बचे हुए संचालक और अध्यक्ष महोदय ‘परमवीर चक्र’ के हकदार। बेचारे एक दूसरे को अपनी रचना सुनाकर एक दूसरे के प्रति आभार प्रकट करते हुए विदा लेते और देते हैं।
हमारे मनीषियोें ने साहित्य को समाज का दर्पण कहा है। पर ये दर्पण मुझे प्रदर्शनियों में रखे उन दर्पणों की याद दिलाते रहते हैं जिनमें अपनी सूरत देखकर लोग डरते हैं। हँसते हैं और कभी-कभी घबराते भी हैं। सही भी है। जब दर्पणों को निर्माण करनेवाले ही उसमें अपनी शकलें देखने को तैयार नहीं होंगे और उपेक्षा करेंगे तो हम समाज से क्या अपेक्षा करेंगे? संभवतः इसलिए समाज पर आज सत-साहित्य का प्रभाव नहीं पड़ रहा है।
— शरद सुनेरी