ग़ज़ल : बुजुर्गों का अदब रखती है गाँवों में नज़र अब भी
बुजुर्गों का अदब रखती है गाँवों में नज़र अब भी
बड़ों के सामने झुक जाते हैं छोटों के सर अब भी
उतरते ही नहीं दिल से मुहब्बत के हसीं मंज़र
फिरा करते हैं मेरी आँख में गाँवों के घर अब भी
दिखाई देते होंगे तुमको पर्वत खाई या पत्थर
नज़र आती है दादी माँ हमें तो चाँद पर अब भी
चिरैया गीत गाए जा रही है दाने चुग-चुगकर
किसानी क़िस्मतों को रो रही है खेत पर अब भी
हुकूमत खूँ पिया करती थी पहले भी ग़रीबों का
सियासत हो रही है मुफ़्लिसों की मौत पर अब भी
सजे बाज़ार रोषन महल सड़कें हैं सभी लेकिन
हमारे गाँव से अच्छा नहीं तेरा शहर अब भी
— ए. एफ़. ’नज़र’