ग़ज़ल : रगों में जैसे कुहरे की घटाएँ डोलती हैं
रगों में जैसे कुहरे की घटाएँ डोलती हैं
अजब बेचैनियाँ दिल में हवाएँ घोलती हैं
हमारे शहर ने कितनी तरक़्क़ी की है यारो
यहाँ इंसान चुप हैं और मषीनें बोलती हैं
ये दिन के वक़्त जो वीरान सी लगती हैं राहें
यहाँ जब रात होती है तो परियाँ डोलती हैं
हमारा दर्द पढ़ना है तो फिर आँखों से पढ़िए
मषीनें सिर्फ़ दिल की धड़कनों को तौलती हैं
हसीनों की तरह शरमाई रहती हैं ये खुषियाँ
मिलो बेबाक होकर तो ये जुल्फ़ें खोलती हैं
किसी की बात सुनने की यहाँ फुरसत किसे है
सलीक़े से चलो सड़कें तो अक्सर बोलती हैं
— ए. एफ़. ’नज़र’
उम्दा ग़ज़ल
बेहतरीन ग़ज़ल !
बेहतरीन ग़ज़ल !