कविता : मेरे सपनों का गाँव
आ री निंदिया हाथ पकड़
मुझे अपने साथ ले चल
मेरे सपनों के मुझे तू गाँव ले चल
जहाँ बादल रुई के फोहे बन उड़ते हों
चाँद और सूरज आँख मिचौली खेलते हों
पुरूवाई में प्रेम की सुगंध बहती हो
धरती जहाँ की देश-भक्त पैदा करती हो
गायों के गले में सोने के घुंघरू बजते हों
गेहूँ की बालियों से हीरे – मोती झरते हों
गलियों में दूध – दही की नदियाँ बहती हों
चाची – ताई , माँ – दादी सब संग मिल रहती हों
रोटी मेरे चूल्हे, दाल तेरे हारे पकती हों
पूरे कुनबे में एक ही खिचड़ी बँटती हों
बाहमनी की मेहँदी से नाई के बेटी की हथेली सजती हो
बाजरा, ज्वार, गेहूँ, मक्की सब एक ही चक्की पिसती हों
गाँव की सारी औरतें एक कुंए से पानी लाती हों
राम का मटका जहाँ रहीम की बेटी भरती हो
गोधुली की बेला में चौपालों पे डफ़ बजती हो
राग – रागनी की मधुर धुनें समारोह में सुनती हों
बड़े – बुज़र्गों की सलाह से ही पंचायत चलती हो
घर- घर में बिजली हो सड़कें साफ़ – सुथरी हों
स्कूल की दीवारों पे इन्टरनेट की दुनियाँ उभरी हो
ऊँच – नीच न हो जहाँ ना ही जात – पात हो
प्रेम और भाईचारे की हर घर में बात हो
कुरान की आयतें हिन्दू बहनें सुनाती हों
शिव का रूद्र अभिषेक करने मुस्लिम बहनें जाती हों
आ री निंदिया खवाबों में ही ले चल
मुझे ऐसे एक आदर्श गाँव ले चल
— परवीन चौधरी
सरल शब्दों में बेहतरीन कविता. बधाई आप को परवीन चौधरी जी .
सह्रदय आभार आदरणीय ओमप्रकाश जी
सह्रदय आभार आदरणीय ओमप्रकाश जी
कुरान की आयतें हिन्दू बहनें सुनाती हों
शिव का रूद्र अभिषेक करने मुस्लिम बहनें जाती हों उत्तम विचार ,काश ऐसा हो सके .
अपना अमुल्य समय देखकर मेरी रचना को पढने के लिए बेहद शुक्रिया गुरमेल जी
बेहद शुक्रिया गुरमेल जी
बाहमनी की मेहँदी से नाई के बेटी की हथेली सजती हो
बाजरा, ज्वार, गेहूँ, मक्की सब एक ही चक्की पिसती हों
गाँव की सारी औरतें एक कुंए से पानी लाती हों
राम का मटका जहाँ रहीम की बेटी भरती हो
काश
बस …ये काश…समाज से हट जाए
दिलों की ये दूरियाँ
दो हाथों सी पट जाएँ
…..मेरी रचना को अपनी अमुल्य नज़र देने के लिए बेहद आभारी हूँ। विभा जी