धर्म-संस्कृति-अध्यात्म

जीवात्मा ही सुख-दुःख का भोक्ता और ईश्वर उनका साक्षी है

ओ३म्

ऋषि दयानन्द उपदेश-

 

मनुष्य का) देह और अन्तःकरण जड़ है, उनको शीतोष्ण प्राप्ति और भोग नहीं है जैसे पत्थर को शीत और उष्ण का भान या भोग नहीं है। जो चेतन मनुष्यादि प्राणी उसका स्पर्श करता है उसी को शीत उष्ण का भान और भोग होता है। वैसे प्राण भी जड़ है। न उन को भूख न पिपासा किन्तु प्राण वाले जीव को  क्षुधा, तृषा लगती है। वैसे ही मन भी जड़ है। न उस को हर्ष, न शोक हो सकता है किन्तु मन से हर्ष, शोक, दुःख, सुख का भोग जीव करता है। जैसे बहिष्करण (बाह्य-करण वा इन्द्रिय आदि साधन) श्रोत्रादि इन्द्रियों से अच्छे बुरे शब्दादि विषयों का ग्रहण करके जीव सुखी दुःखी व होता है वैसे ही अन्तःकरण अर्थात् मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार से संकल्प, विकल्प, निश्चय, स्मरण और अभिमान का करने वाला दण्ड और मान्य का भागी होता है।

 

जैसे तलवार से मारने वाला दण्डनीय होता है तलवार नहीं होती वैसे ही देहेन्द्रिय (नेत्र, श्रोत्र, नासिका एवं रसना एवं त्वचा), अन्तःकरण (मन, बुद्धि, चित्त एवं अहंकार) और प्राणरूप साधनों से अच्छे बुरे कर्मों का कर्ता जीव सुख दुःख का भोक्ता है। जीव कर्मों का साक्षी नहीं, किन्तु कर्ता भोक्ता है। कर्मों का साक्षी तो एक अद्वितीय परमात्मा है। जो कर्म करने वाला जीव है वही कर्मों में लिप्त होता है, वह जीव साक्षी नहीं अपितु ईश्वर ही साक्षी है।

 

उपर्युक्त पंक्तियां हमने सत्यार्थप्रकाश के नवम् समुल्लास से ली हैं। इनमें ऋषि दयानन्द ने मनुष्य के अन्तःकरण चतुष्टय मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार का उल्लेख किया है और बताया है कि यह चारों, जीवात्मा से पृथक, जड़ पदार्थों से निर्मित होने के कारण जड़ हैं, अतः इन्हें किंचित सुख व दुःख का अनुभव नहीं होता अपितु इनके द्वारा जीवात्मा द्वारा ग्रहण किया जाता है। स्वामी दयानन्द जी ने मन का कार्य संकल्प विकल्प, बुद्धि का काम निश्चय वा निर्णय करना, चित्त का कार्य स्मरण अर्थात् पुरानी बातों को याद रखना तथा अहंकारउपकरण का कार्य  अभिमान करना बताया है। इससे हमें यह ज्ञात होता है कि हम जो पुरानी बातों को याद करते व रखते हैं, वह कार्य हमारे अन्तःकरण के चित्त उपकरण द्वारा किया जाता है। यदि किसी मनुष्य की स्मरण शक्ति कमजोर है तो उसे अपने चित्त को शुद्ध आहार, प्राणायाम, ध्यान वा मन की एकाग्रता के द्वारा सुधारना चाहिये। इसी प्रकार हम जो अभिमान आदि करते हैं वह भी अन्तःकरण चतुष्टय में अहंकार उपकरण द्वारा होता है। इस अभिमान’ पर नियन्त्रण व इसे आदर्श स्थिति प्रदान करने के लिए इसका सुधार भी प्राणायाम, ईश्वर के ध्यान व ईश-प्रार्थना सहित ईश्वर में एकाग्रता की स्थिति को बनाकर किया जा सकता है। हम समझते हैं कि मन व बुद्धि के बारे में तो किसी को कोई भ्रम नहीं है। सब इन अन्तःकरण के उपकरणों को मानते व जानते भी हैं परन्तु चित्त व अहंकार का ज्ञान मनुष्यों को नहीं होता और वह इसे या तो जानते ही नहीं अथवा इसे जीवात्मा व इसके अन्तर्गत अपृथक ही मानते हैं। महर्षि दयानन्द के उपर्युक्त उपदेश से चित्त व अहंकार पर प्रकाश पड़ रहा है, वह जीवात्मा से पृथक हैं, इसे ही बताने के लिए हमने यह पंक्तियां लिखी है। हमारे विद्वान इस विषय में अपनी प्रतिक्रिया से हमें लाभान्वित कर सकते हैं।

 

ऋषि दयानन्द जी ने उपर्युक्त पंक्तियों में यह भी बताया है कि जड़ पदार्थ पत्थर आदि की तरह होते हैं, तथा मन, बुद्ध, चित्त व अहंकार भी जड़ है, अतः इन्हें शीत व उष्णता का ज्ञान, अनुभव, भान व भोग नहीं होता। यह ज्ञान व भान केवल चेतन आत्मा को होता है जो अन्तःकरण के मन, बुद्धि आदि साधनों द्वारा शीत, उष्णता व सुख-दुःख आदि का भोग करता है। इससे विवरण से जड़ पूजा का भी खण्डन होकर वह मिथ्या सिद्ध होती है। कारण यह कि जड़ पदार्थ मूर्ति, जो कि जड़ ही है, उसे किसी भी प्रकार से जीवात्मा व मनुष्यों द्वारा की जाने वाली स्तुति व प्रार्थना का बोध, ज्ञान, भान आदि नहीं होता, अतः मूर्ति की पूजा व्यर्थ कार्य सिद्ध होता है। जीवात्मा के लिए स्वयं से अधिक ज्ञानी, बलवान, धार्मिक, जन्मजन्मान्तर में साथ रहने वाली चेतन सत्ता ही उपासनीय है। वह केवल एक सर्वव्यापक सर्वदेशी ईश्वर ही है जिसका स्वरूप सत्य, चित्त, आनन्द से सदैव युक्त रहना, निराकार, सर्वशक्तिमान्, न्यायकारी, दयालु, अजन्मा, अनन्त, निर्विकार, अनादि, अनुपम, सर्वाधार, सर्वेश्वर, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, अजर, अमर, अभय, नित्य, पवित्र और सृष्टि की रचना आदि है। ईश्वर ही जीवात्मा को उसके पूर्व जन्मों के कर्मानुसार मनुष्यादि योनियों में जन्म देता है, पालन करता है, सुखदुःख प्रदान करता है वृद्धावस्था अन्य आपात् स्थितियों में जीवात्मा को शरीर से पृथक कर मृत्यु प्रदान कर पुनः कर्मानुसार नया जन्म वा शरीर प्रदान करता है। अतः केवल और केवल एक अद्वितीय ईश्वर ही सभी मनुष्यों के लिए उपासनीय है। जड़पूजा ईश्वर पूजा का पर्याय कभी नहीं हो सकती। इससे मनुष्य जन्म व उसके सर्वोच्च फल मोक्ष’ की हानि होने से मनुष्य धर्म, अर्थ व काम आदि से भी दूर हो जाता है। यह जड़-मूर्ति-पूजा उन्नति का मार्ग न होकर अवनति का मार्ग है जो ईश्वरीय ज्ञान वेद के विरुद्ध है।

 

 –मनमोहन कुमार आर्य