भाषा-साहित्य

मैं हिंदी बोल रही हूँ

जी हाँ! आपने ठीक पहचाना, मैं हिंदी ही बोल रही हूँ, वही १४ सितम्बर वाली हिंदी, जिसे आप पिछले ६७ वर्षों से सामूहिक गुणगान के सहारे राष्ट्रभाषा के सिंहासन पर आसीन करने का हृदयग्राही स्वप्न देख रहे हैं! मैं भी अजन्मी खुशियों के कई सपने उधार लेकर हर वर्ष आपके कार्यक्रम में आती हूँ,  इस उम्मीद के साथ कि क्या पता मेरे अधिकार का मुकुट मेरे माथे पर लगने की बाट जोह रहा हो मगर आप में से कोई मुझे पहचान भी नहीं पाता! मैं सबसे पीछे की पंक्ति में अपनी ६७ वर्ष पुरानी जर्जर छड़ी के सहारे खड़ी होकर आप लोगों की बातें बड़े ध्यान से सुनती हूँ! कुछ देर के लिए ही सही, मेरे शब्दों को पहनकर आप लोग अच्छे लगते हैं! आपकी आँखों से देखते हुए मैं भूल जाती हूँ कि कल्पना के गोटे से जटित राष्ट्रभाषा का स्वप्न आज़ादी के साथ मिला १५ वर्षों के अभिशाप का वह दंश है जिसे मैं आज तक भीग रही हूँ! आपके अधरों पर उगकर मैं यह भी भूल जाती हूँ कि जिस स्पर्श को मैं अपनी प्यास की अंतिम अभिलाषा समझ रही हूँ वह उस छलावे का रेतीला तट मात्र है जहाँ मैं पिछले कई वर्षों से प्यासी भटक रही हूँ! आपकी खुशियाँ मुझे अभिभूत तो करती हैं मगर दुःख का गहन अन्धकार मेरा हाथ पकड़कर उस ओर खींच ले जाता है जहाँ किसी ने सूरज का बीज तो बोया था पर अभी तक प्रकाश का कोई पौधा नहीं उगा! आप भी तो उसी सूरज को सींच रहे हैं! आपके उत्सव में आकर भले ही पीड़ा का आभास होता है मगर आपके स्नेह का आचमन मेरे प्राण को एक और वर्ष जीने की ऊर्जा से अभिसिंचित कर देता है! इस तरह आपके अगाध स्नेह और दुलार के साथ एक और” १४ सितम्बर” की प्रतीक्षा में वापस आकर अपनी कोठरी में पड़ी उस चारपाई पर लेट जाती हूँ जिसमे असंख्य कीलें गड़ी है!

यहाँ मै अकेली नहीं रहती, मेरी ही तरह मेरे साथ अनेक उपेक्षित भाषाएँ अपने कल की बची खुची सांसें सहेजते हुए भोर की लालिमा का आलिंगन करने के लिए बेचैन बिखरी पड़ी रहती हैं! मेरे कमरे में एक ही दरवाजा है जो बाहर से बंद रहता है! यहाँ एक रोशनदान भी है जहाँ से कभी कभी मेरे अक्षर रेंगकर अंदर आ जाते हैं और किसी नई आशा की सुनहरी कहानी सुनाकर वापस चले जाते हैं! अब तो मुझे डर भी लगने लगा है! मै अनुवादित होते होते थक गयी हूँ! अपने ही देश में विदेशी भाषा के अनुवाद का चेहरा लगाते लगाते मेरे रूप का लावण्य धूमिल होता जा रहा है! मै यह कृत्रम आवरण उतार कर फेंक देना चाहती हूँ! आप सब मुझे माँ कहते हैं, मै आप से पूछती हूँ क्या कभी माँ का भी अनुवाद किया जाता है ? अगर आपकी बहरी वैचारिकता मेरी मौन संवेदना को छूकर जरा भी विचलित होती है तो बताइये, कोई है ? जो मुझे इस अनुवाद के कारावास से मुक्त करा सके ! विषम परिस्थितयो के ताप पर अब तो मेरे शब्द भी पिघलने लगे हैं, आये दिन उन्हें नए नए रूप में ढाला जाता है! कई बार तो अंग्रज़ी के परिधान मे लपेटकर मेरा वरण किया जाता है !क्या पता कुछ वर्षों बाद मै अपने नए रूप को देखकर कहीं स्वयं ही न डर जाऊँ और उस धूल भरे दर्पण को तोड़कर फेंक दूँ जो पिछले ६७ वर्षों से मैंने अपनी पुरानी पोटली में संभाल कर रखा है !

वैसे इस पुराने दर्पण को छोड़कर मेरे पास त्यागने को कुछ और है भी नहीं, हाँ एक आत्मा अवश्य है जिसमें मैंने अपने देश की सभ्यता और संस्कृति के अणुओं को संभाल कर रखा है! मुझे नहीं पता स्वाभिमान के उन सपनो का क्या होगा जो देश के बलिदानियों ने अपने लहू से सींचकर राष्ट्रभाषा के साथ जोड़कर देखा था ! मुझे नहीं पता, तिरंगे के साथ चहकने वाली राष्ट्रभाषा का गौरवशाली हुंकार कब हमारी अस्मिता के अस्तित्व का राष्ट्रिय उद्घोष बनकर पूरे विश्व में आच्छादित होगा ! मुझे यह भी नहीं पता कि इतने वर्षों से राष्ट्रभाषा-विहीन राष्ट्र के जागरूक लोगों के स्वाभिमान की गरिमा उनकी महत्वाकांक्षाओं के किस कोने में दबी पड़ी है, मगर अपने बच्चों से यह अवश्य कहना, मैं मन, विचार और चेतना से प्रस्फुटित होने वाली राष्ट्र की सच्ची अभिव्यक्ति हूँ! मैं इस देश की वाणी हूँ! मुझे माँ कहने वालों! उन्हें यह भी बताना कि मैं उनकी लोरी भी हूँ और किलकारी भी ! मै ही सांसों में तरंगित होकर भावों की गति बनकर बहती हूँ! मै ही गंगा बनकर अनगिनत लहरों में समाती हूँ और राष्ट्र-गौरव का गीत गाकर हर भारत वासी के माथे पर स्वाभिमान का तिलक लगाती हूँ! मेरे प्रवाह के आँचल में इस देश की सारी भाषाएँ तरंगित होकर आह्लादित होती हैं! उनसे यह भी कहना मुझे स्पर्श करें, मेरे होने का अनुभव करें! मेरे अंदर समाहित भारतीयता का आत्मसात करें! बस एक बार मुझे अपने अधरों से मुखरित होने दें, मै उन्हें राम, कृष्ण, तुलसी, रहीम, कबीर, मीरा सब दूंगी, और उन्हें वहां तक लेकर जाउंगी जहा उनकी जड़ें अभी भी प्रतीक्षा कर रही हैं परम्पराओं में गुंफित भारतीय संस्कृति के पुरातन मूल्यों के अनमोल धरोहर सौपने के लिए!

संस्कृत के कोख से जन्मी मै केवल भाषा ही नहीं बल्कि अनंतिम सत्य की प्रस्तावना और नैतिक मूल्यों की संवाहक भी हूँ जिसे पाने के लिए आज सम्पूर्ण विश्व तड़प रहा है! वैसे तड़प तो मैं भी रही हूँ लेकिन मेरी तड़प की पीड़ा उस समय कम हो जाती है जब आप लोग मुझे राष्ट्रभाषा का मान देकर चन्दन बना देते हैं! मैं जानती हूँ मेरा राष्ट्रभाषा का स्वप्न आप का ही स्वप्न है, आपने ही उसे संजोया है, और आप यह भी चाहते हैं की मैं गर्व से कहूँ कि “मै राष्ट्रभाषा हिंदी बोल रही हूँ” मगर जब तक अधिकार का तिलक मेरे माथे पर नहीं लगता तब तक तो बस इतना ही  कह पाऊँगी कि : “मै हिंदी बोल रही हूँ” इस आशा के साथ कि जिन्हें सुनना है, काश! वो भी सुन पाते!

ज्ञानचंद मर्मज्ञ, बंगलुरु

ज्ञानचन्द मर्मज्ञ

संपादक, साहित्य साधक मंच,बंगलुरु ! मो. 09845320295 ईमेल: [email protected]