मेरी कहानी 155
रानी पुर पहुँच गए थे और सफर की थकान के कारण हम जल्दी सो गए। सुबह उठ कर शादी के प्रोग्राम का सब मालूम हो गया। लड़की वालों का गाँव नज़दीक ही था लेकिन मुझे अब गाँव का नाम याद नहीं है। सारे काम तो छोटे भाई और उस की पत्नी परमजीत ने तैयार कर लिए थे, बस अब तो शुरू होना ही रह गया था। जिस शख्स ने यह रिशता कराया था वोह एक दिन साहा पत्र ले कर आ गया। हमारी ओर से कुछ नजदीकी रिश्तेदार थे। बैठ कर मैने वोह साहा पत्र पड़ा। मठाई का ड़िब्बा खोल कर सब ने मुंह मीठा किया। चाय बगैरा पीने के बाद जिस ने रिश्ता कराया था (नाम मालूम नहीं लेकिन वोह पलाही गाँव का था ), वो वापस चला गया। शादी की तारिख तो मुझे याद नहीं लेकिन यह फरवरी का महीना था और दिन के वक्त अच्छी मन भावनी धूप हो जाती थी और रात को ठंडी हो जाती थी। शादी से पहले रात के वक्त औरतें गाने के लिए आ जाती थीं और बहुत रौनक हो जाती थी। इन औरतों में बहुत सी औरतों को मैं जानता नहीं था लेकिन बजुर्ग औरतें मेरे साथ बातें करने लगती थीं, और मुझे बहुत खुशी होती थी। इन औरतों में मेरी बचन कौर भाबी भी होती थी जिन की बेटी गुड्डी का हाथ चारा कुतरने वाली मशीन में आ गया था। गुड्डी अब कहीं दूर रहती थी और उस के बच्चे अब बड़े हो गए थे। भाबी के पति यानी मेरे बड़े भईया डुबाई में थे जब वोह वहां ही शांत हो गए थे। डुबाई में उन का अच्छा कारोबार था। अब तो भाबी भी इस दुनियाँ में नहीं रही और अब यह मेरा भाबी से आख़री मिलन ही था। जिस दिन मंदीप की हल्दी की रसम थी तो उस दिन बचनों भाबी नें मेरे मुंह पर भी हल्दी लगा दी थी और फिर मैंने भी उस का मुंह पीला कर दिया था। कभी समय था जब बचपन में मैं बचनों भाबी के घर सोया करता था और बचनों भाबी के साथ ही मैंने अपना बचपन गुज़ारा था। भाबी का पती यानी बड़े भाई गुरचरन सिंह उस वक्त इलाहाबाद काम के लिए जाया करते थे, कभी कभी बचनों भाबी पियार में आ कर ही मेरे मुंह पे चांटा मार देती थी और मैं रोते रोते उस को गाली देने लगता था और फिर मैं गुस्से में उस को एक ऐसी गाली देता था जो उस को पसंद थी, मैं कहता था,” तेरे मुंडा जम्मे “, बचनों भाबी मुझे गले लगा लिया करती थी। दुःख की बात यह है कि बचनों भाबी बेटे का मुंह देखने के लिए तरसती ही इस दुनियाँ से चले गई क्योंकि उस के पांच बेटियाँ ही हुई थीं। रात के वक्त जब औरतें गाने के लिए आती थीं तो मैं और छोटे भाई निर्मल की पत्नी के भैया तरसेम इन औरतों में मस्ती करने लगते थे। तरसेम हम से दो दिन बाद इंगलैंड से आया था। तरसेम से मेरा पियार बहुत हुआ करता था। दिन के वक्त मंदीप और उस के बड़े भाई कमलजीत के बहुत से दोस्त हमारे घर आ जाते थे, जिन को मैं जानता तो नहीं था लेकिन जब वोह अपने पिता जी का नाम बताते तो मुझे झट से समझ आ जाती। क्योंकि चर्मकार बस्ती हमारे घरों के नज़दीक ही होती थी और बहुत लोगों को मैं जानता ही था, इस बस्ती में से बहुत से मज़दूर उन दिनों हमारे खेतों में काम करने आते थे, इस लिए बहुत लोगों को मैं जानता था। अब समय बदल गया था। उन के बच्चे अब पढ़ गए थे और हमारे घर आते जाते रहते थे। यह लड़के बहुत सभ्य थे। जब भी आते, पहले मेरे पैरों को हाथ लगाते थे । उन से बातें करना मुझे बहुत अच्छा लगता था । एक लड़का इन में सिंगर था और इस के पास बड़ा सा कीबोर्ड था। यह कीबोर्ड कुछ दिनों के लिए वोह मेरे पास छोड़ गया था। जब औरतें गाती थीं तो मैं उन के साथ कीबोर्ड बजाने लगता था। मुझे इस में बहुत आनंद आता था।
शादी से कुछ दिन पहले निर्मल के समधि और समधन हमारे घर आये थे। क्योंकि हम को उन के आने का पता था, इस लिए खाना तैयार कर लिया गया था। मैं बाइसिकल पर सवार हो कर बीयर की दूकान पर जाने के लिए तयार हो गया जो कुछ दूर ही थी। छोटे भाई निर्मल ड्रिंक नहीं लेते थे लेकिन जब मुझे पता चला कि समधि साहब ड्रिंक लेते थे तो उन की सेवा करना मेरा जिमाँ ही था और यह हमारा फ़र्ज़ भी था। पंजाबी लोग शायद ही कोई हो जो ड्रिंक नहीं लेता हो और यह ड्रिंक ऑफर करना भी सेवा का एक हिस्सा ही समझा जाता है। दूकान का पता पूछ कर मैं सड़क पर जा रहा था तो रास्ते में जब भी कोई पुराना साथी मुझे मिलता, मैं साइकल से उतर कर उस से बातें करने लगता। रास्ते में आज फिर मुझे बचपन का दोस्त और क्लास फैलो अमरीक मिल गया, जिस को अक्सर मीको ही कहते थे और यह सकूल में बहुत शरारती हुआ करता था। इस के साथ ही बचपन में मेरी लड़ाई हुई थी और इस ने मेरे नाक पर घूँसा मारा था और मेरी नाक अभी तक टेहड़ी है। आज भी शीशे में देख कर कभी कभी मुझे मीको की याद आ जाती है। मीको के साथ बैठ कर कुछ देर हम ने बातें कीं और मैंने उसे बचपन की उस लड़ाई का याद दिलाया तो वोह बहुत हंसा। मैंने मीको को बोला कि इस नाक के कारण मुझे उस की याद हर दम आती रहती है। कुछ देर मीको से बातें करके मैं दूकान पर पहुँच गया। यहां बहुत सी दुकानें थीं और कुर्सी पर बैठा मेरे बचपन के मास्टर जी बाबू राम का बड़ा लड़का लुभाया राम मिल गया जो उस वक्त सिगरेट पी रहा था। वोह मुझे देख कर एक दम उठ खड़ा हुआ और सिगरेट फैंक कर मेरे साथ हाथ मिलाया। मैंने उसे उस के छोटे भाई नप्पल जिस का नाम राम सरूप है, का हाल चाल पुछा तो उस ने बताया कि उस के लड़कों का काम बहुत अच्छा है। फिर लुभाया राम ने अपने लड़कों के बारे में बताया कि वोह बिदेस में रहते हैं। बातें करते करते पता चला कि जिस जगह पर यह दुकाने और कोठीआं थीं, इस जगह बहुत बड़ा तालाब जिस को डबरी बोलते थे, हुआ करता था। लुभाया राम मुझे बता रहा था कि यहां पीपल का बृक्ष हुआ करता था, वहां वोह हुआ करता था और कुछ देर मैं बचपन के उन दिनों में खो गया, जब हम इस तालाब में नहाया करते थे और भैंसों की पूछें पकड़ कर तैरा करते थे। यहां ही एक लड़का डूब गया था और इस जगह नहाने की वजह से ही एक दफा मेरे पिता जी ने मुझे बहुत पीटा था।
लुभाया राम से बहुत देर तक मैं बातें करता रहा और बातें करते करते मुझे उन दिनों की याद आ गई जब हम कुछ लड़के लुभाया राम के घर रात को सोया करते थे और लुभाया राम के पिता जी मास्टर बाबू राम हमे पढ़ाया करते थे। लुभाया राम की उन दिनों नई नई शादी हुई थी और एक लड़के हरभजन ने लुभाया राम की बीवी के बारे में कुछ अपशब्द बोले थे और मास्टर बाबू राम ने हरभजन को बहुत पीटा था और हम सब को मास्टर जी का घर छोड़ना पढ़ा था। कुछ देर बाद मैं बीयर की दूकान पर गया जिस के आगे लोहे की सलाखें थीं, जिन के नीचे एक गली सी थी जैसे पोस्ट ऑफिस में टिकट लेने के लिए होती थीं। मैंने उस से चार बीयर की बोतलें ले कर झोले में डाल ली और यों ही चलने के लिए बाइसिकल पर सवार होने लगा, एक सुकड़ा सा आदमी मेरे आगे आगे हाथ फैला कर बोला, ” गुरमेल सिंह मुझे कुछ पैसे दे दो, मैं बहुत दुखी हूँ “, लुभाया राम उसी वक्त दौड़ कर मेरे पास आ गया और उस सुकड़े आदमी को गाली निकाल कर दौड़ा दिया। फिर लुभाया राम मुझे बोला,” पहचाना इसे गुरमेल, यह नाईआं दा मुंडा मनोरसी है, साला ड्रग लेता है, सारा घर इस ने बर्बाद कर लिया “, मैं चल पढ़ा और इस मनोरसी की बचपन की शरारतों के बारे में सोचने लगा जब यह गियान की दूकान के पास दूसरे लड़कों के साथ बहुत बातें किया करता था, तब यह बहुत हंसमुख और बहुत शरारती हुआ करता था। मुझ से कुछ बड़ा था लेकिन यह देखने में काफी सुंदर था। कैसे इंसान बदल जाते हैं, सोचता हुआ मैं घर आ गया और समधी समधन भी आ गए। दोनों बहुत मिलनसार थे। बीयर पीते पीते हम ने बहुत बातें कीं। वोह कह रहे थे कि वोह खाना खा कर आये थे लेकिन हम भारतवासियों की मेहमान निवाज़ी भी ऐसी होती है कि हम मेहमान को जबरदस्ती खिला देते हैं। अँगरेज़ लोग एक बात से ही बात ख़त्म कर देते है और वोह है इन का नो थैंक्स, और आगे दुबारा कोई पूछता भी नहीं है। तीन चार घंटे हमारे महमान रहे और हंसी ख़ुशी वोह चले गए।
शादी की तैयारियाँ हो चुकी थीं और एक दिन घर के ऊपर पाठ रखा दिया गया क्योंकि सगाई की रस्म की कार्रवाई होनी थी। घर की एक तरफ हलवाई खाने बनाने में मसरूफ थे। रागी सिंह कीर्तन कर रहे थे और लाऊड स्पीकर की आवाज़ सारे गाँव को घर की रौनक का सन्देश दे रही थी। महाराज जी के सामने मंदीप को बिठा दिया गया और पहले लड़के वालों ने मंदीप की झोली में शगुन डाला। इस के बाद निर्मल और परमजीत ने और फिर मैंने और कुलवंत ने ऐसा ही किया। अब सारे रिश्तेदारों और शरीके भाईचारे ने अपना अपना फ़र्ज़ निभाया। इस के बाद सभी नीचे आ गए। चाय पानी का इंतज़ाम हलवाइयों ने पहले ही कर रखा था। मिठाईयाँ और नमकीन टेबलों पर पड़े थे और हर कोई अपनी पसंदीदा मिठाई और नमकीन प्लेट में डाल कर किसी ना किसी से बातें करने लगता। समय के साथ साथ बहुत चेहरे अक्सर बदल जाते हैं, एक गियानी जैसा पुरुष एक कोणे में बैठा खा रहा था। निर्मल मेरे पास आया और बोला, ” भा जी ! इन को पहचाना, यह सेवा सिंह है, जिन को सेवा कह कर बुलाया करते थे। अब सेवा सिंह की दाहड़ी काफी लंबी थी और उस ने अमृत छका हुआ था जो उस के गले में डाले हुए गात्रे से ज़ाहर हो रहा था। सेवा सिंह ने मिलट्री में भी सेवा निभाई थी और उसे अब भारत सरकार की ओर से पैंशन मिल रही थी। मुझे झट से पुरानी यादें आ गईं, जब हम सेवा सिंह के दोस्त के घर भी कुछ महीने रात को सोया करते थे। रात को इकठे हो कर पढ़ना तो एक बहाना ही होता था, बस शरारतें ज़िआदा होती थीं। सेवा सिंह के साथ कुछ बातें कीं लेकिन अब वोह इतनी बातें नहीं कर रहा था और उस के घुटने भी शायद उसे परेशान कर रहे हों क्योंकि उस की ऐक्टिंग से ही जाहर हो रहा था। कुलवंत की बहन दीपो भी एक टेबल पर चाय बगैरा ले रही थी और अब हम उस से बातें करने लगे। कुछ लोग हमारे ननिहाल से आये हुए थे जिन में हमारे मामा जी के बेटे, भैय्या संतोख सिंह और भाबी आये हुए थे। संतोख भैय्या कब के रिटायर हो चुक्के थे और हुशिआर पुर में बहुत अच्छा मकान बना लिया था।
कुछ देर बाद छत पर से लाऊड स्पीकर में हैलो हैलो सुनाई दिया और जल्दी ही कीबोर्ड और ड्रम की आवाज़ ने सब को चुप करा दिया। कोई बोलने की कोशिश करता भी था तो लगता था जैसे बोलने से खुद की एनर्जी बर्बाद कर रहा हो क्योंकि कुछ भी सुनाई नहीं देता था। धीरे धीरे सब ऊपर जाने लगे। ऊपर स्टेज लगी हुई थी, एक कीबोर्ड बजा रहा था एक इलैक्ट्रिक ड्रम और एक देसी ढोल और पास ही दो लड़कियाँ थीं। निर्मल ना तो खुद और ना कोई बेटा ड्रिंक करता था लेकिन यह सारा इन्तज़ाम रिश्तेदारों और दोस्तों के ऐंटरटेनमेंट के लिए किया गया था। एक तरफ पुरुष और एक तरफ महिलाएं और बच्चे बैठे थे। गाना तो मुझे कोई याद नहीं कि कौन सा गाया था लेकिन गाते बहुत अच्छा थे। ड्रिंक सर्व होने लगे और एक ड्रिंक मैंने भी संतोख भैय्या के साथ बैठ कर लिया। संतोख भैय्या तो कभी बहुत पिया करते थे लेकिन अब कम कर दिया था। संतोख भैय्या की याद आ गई, अब वे 90 के ऊपर हो गए हैं लेकिन अल्ज़ाइमर रोग ग्रस्त हैं। यह भैय्या बहुत ही अच्छे हैं और इन की शक्ल मुझ से बहुत मिलती है। जब कभी मैं नानके गाँव डींगरीआं जो आदम पुर के नज़दीक है,जाया करता था तो बहुत लोगों को मुझे पहचानने में गलती लग जाती थी कि मैं संतोख हूँ। भैय्या के साथ बैठ कर मैंने ढेर सी बातें कीं। अब मयूजिक बहुत ऊँचा था और ज़िआदा बोलने का कोई फायदा भी नहीं था, सभी गाने का मज़ा लेने लगे। इस के बाद डिनर का इंतज़ाम था और कुछ घंटे बाद समाप्ती हो गई और वातावरण धीरे धीरे शांत होने लगा क्योंकि सभी लोग जाने लगे थे।
दूसरे दिन बरात की रवानगी थी। शादी की रस्म फगवाड़े के नज़दीक एक गुरदुआरे सुखचैनाणा साहब में होनी थी और पैलेस कहीं और फगवाड़े में ही था। बाजे वाले अपनी वर्दी पहन कर सुबह से ही बराती धुनें बजाने में वयस्त थे। छै सात गाड़ियों में बराती बैठ गए और एक घंटे में फगवाड़े पहुँच गए। हम घर के कुछ लोग शादी की रसम के लिए गुरदुआरे पहुँच गए और शेष बराती पैलेस में पहुँच गए। शादी की रसम के बाद हम भी पैलेस में पहुँच गए। पैलेस हाल में दाखल होने से पहले मिलनी की रस्म हुई और फिर शरारती लड़कियों की तरफ से कुछ आनाकानी के बाद हम पैलेस हाल में दाखल हो गए और अपनी अपनी प्लेट पकड़ कर मन पसन्द भोजन प्लेटों में डाल कर फ्रन्ट रो में हम बैठ गए। इंगलैंड और भारत में शादी की रस्में अलग्ग अलग्ग ढंग से होती हैं और भारत का सिस्टम मुझे अच्छा लगा। दूल्हे दुल्हन के लिए किसी बादशाह के तख्त जैसी मखमली कुर्सीआं बहुत पसंद आईं।
गाने वाले गा रहे थे और लड़के और कुछ औरतें डांस कर रहे थे। बहुत खुशगवार वातावरण था। कुलवंत भी परमजीत के साथ नाच रही थी। निर्मल भी हमारे पास ही था। तब पता नहीं कहाँ से एक शराबी झूमता हुआ इस मज़े करती हुई भीड़ में आ घुसा कि निर्मल के साथ टकरा गया और निर्मल गिर गया। यह देख कर गुस्से में आये लड़कों ने उस को इतना पीटा कि मुझे तो वोह मर गया ही लगता था। बाद में पता चला कि उस को किसी ने नहीं बुलाया था, वोह खुद ही मुफ्त में पीने का बहाना बना कर महमान बना हुआ था। बाद में इस का किया हुआ, मुझे पता नहीं। इस पैलेस हाल के साथ ही एक और पैलेस भी था, जिस में एक और बरात आई हुई थी लेकिन दोनों हॉलों के लिए टौयलटें एक जगह ही थीं। जब मैं टौयलेट में गया तो मैं हैरान हो गया जब वहां मैंने अपने सांढू साहब कुंदी को वहां देखा। एक दूसरे को देख कर हम हैरान और खुश हो गए। पता चला कि कुलवंत की बहन पुन्नी भी आई हुई थी। कुंदी ने बताया कि वोह अभी ही मुंबई से आये थे। क्योंकि हम ने इंग्लैंड से आने से पहले उन को बताया नहीं था और अब यह अचानक मेला हो गया। मैंने कुंदी को इंतज़ार करने को कह कर हाल से कुलवंत को ले आया। इस सरप्राइज मिलन से दोनों बहने बहुत खुश हुईं। अब हम एक ही हाल में बैठ कर बातें करते रहे और शादी का प्रोग्राम ख़तम होने के बाद फिर मिलने के वादे करके अपनी अपनी बरात पार्टी के साथ हम अपने अपने गाँव को चल दिए। चलता. . . . . . . . .
नमस्ते आदरणीय श्री गुरमेल सिंह जी। आज की क़िस्त भी मनोरंजक समाचारों से पूर्ण है और बहुत अच्छी लगी। पुराने मित्रों से मिलकर बहुत अच्छा लगता है। हार्दिक धन्यवाद्।
धन्यवाद मनमोहन भाई .
आदरणीय भाईजी । वाकई आपकी लेखनी का जवाब नहीं । संस्मरण को आप इस खूबी से लिख रहे हैं जिसे पढ़नेवाला दृश्यों को अपनी आँखों के सामने चलचित्र सा चलता हुआ महसूस करता है । मनोरसी की कहानी से अहसास हुआ पंजाब में ड्रग की जड़ें कितनी गहरी और पुरानी हैं । एक और बेहतर कड़ी के लिए धन्यवाद ।
कांदु भाई , आप के लफ़्ज़ों से मुझे बहुत हौसला मिला है लेकिन अप भी बहुत अच्छा लिखते हैं और आप के एक लेख ने ही बहुत कुछ बता दिया है कि आगे हम को बहुत कुछ पढने को मिलेगा . कांदु भाई ,जो पंजाब मैं छोड़ कर गिया था, वोह है ही नहीं . आज के पंजाबी लड़के काम करने को राजी नहीं हैं और यू पी बिहार से आये लोग ही पंजाब का काम संभाल रहे हैं .
प्रिय गुरमैल भाई जी, हम तो यह सोचकर ही हैरान हैं, कि इतने संगी-साथियों और रिश्तेदारों से आपका सरप्राइज मिलन कैसे हो जाता है! बहुत ही रोचक, नायाब व सार्थक कड़ी के लिए आभार.
लीला बहन ,यह कुदरत का करिश्मा ही कह सकते हैं किः सरप्राइज़ मिलन कभी कभी हो ही जाता है ,इस कांड को पसंद करने के लिए बहुत बहुत धन्यवाद जी .
बहुत खूब, भाई साहब ! आपकी यह कड़ी भी रोचक रही. समय के साथ बहुत कुछ बदल जाता है.
धन्यवाद ,विजय भाई .समय के साथ साथ हम भी तो कुछ बदल ही गए हैं लेकिन हमें महसूस नहीं होता .