जंगल में मातम
आज जंगल में अखबार आया है,
समाचार पढ़ कर
जंगल में मातम छाया है—
जंगल का हर जानवर जैसे
इंसान से घबराया है,
जानवरो के हर वहशीपन में
इंसान ने उसे पीछे छोड़ दिया है,
और इस वहशीपन ने इंसान का रिश्ता
हैवान से जोड़ दिया है,
गिरगिट रंग बदलने में मात खा रही है,
लोमड़ी मक्कारी छोड़ सिर्फ दुम हिला रही है,
नाग डस भी ले तो उपचार मिल जाता है,
इंसान का डसा तो पानी नहीं मांग पाता है,
कव्वा अब चालाकी नहीं कर पाता
बस कांव कांव कर के रह जाता है,
और यह इंसान , कितनी ख़ामोशी से
भले मानुष को चूना लगा जाता है,
बंदर तो बस उछलने कूदने में वयस्त है,
कुछ छीन के खाने में वह भी असमर्थ हैं,
इन्सान छीना छपटी में कितना माहिर है,
यह अब जंगल में सब बंदरो को ज़ाहिर है,
हाथी अपनी मस्ती भूल
केवल चिंघाड़ता है,
उस से ऊंची आवाज़ में इंसान
आज अपनी शेखी बघारता है,
भालू के पंजे के नाखून
अब धरे के धरे है
क्योंकि, इंसान के हाथ में तो
तीखे चाकू छुरे हैं.
जंगल के राजा से फ़रियाद बेकार है
वह तो टुन्न होकर अपनी मांद में सो रहा है,
और जंगल का हर वहशी जानवर
इन्सान के हाथो परास्त , रो रहा है.
— जय प्रकाश भाटिया