कविता

अब उम्मीद नहीं

दैविक गुणों से भरपूर औरत का कर्ज कभी न चुका पाऊँ
पर बिगड़ी औरत से उसकी खुद की परछाई की भी सगी होने की उम्मीद नहीं
हर जरूरत मन्द अनजान की मदद करने पर कभी न थक पाऊँ
पर हर जानकार की सहायता कर धन्यवाद पाने की उम्मीद नहीं
शायद मर कर सबको अपने शब्दों की आहट से यादों में पल पल सताऊ
पर जीते जी किसी के लायक बन पाने की उम्मीद नहीं
मलिक के दिल की हालत शब्दों में शायद ब्यान कर पाऊँ
किसी के मेरी आँखों में डूब कर महसूस कर पाने की उम्मीद नहीं
अपनी हरकतों से सबको हमेशा हँसाता जाऊं
किसी को मेरे रुलाने की वजह पता लगने की उम्मीद नहीं
उस निरंकार से बस जल्द ही मिल आऊँ
इस धरती पर ज्यादा दिन ठहरने की उम्मीद नहीं
किसी को अपने शब्दों से दर्द न पहुँचाऊँ
मेरी इस आवाज के जन जन तक जाने की उम्मीद नहीं
सबके दिलों की धड़कन बन जाऊँ
अब वो खुशनुमा हसरतों को पालने की उम्मीद नहीं
बेदाग़ जीवन जीकर इस धरा से वापिस जाऊँ
दाग लेकर शान से जीने की उम्मीद नहीं
हर माँ को उसका फर्ज याद दिलाऊँ
माने या ना माने इसकी मुझे कोई उम्मीद नहीं
बच्चों को बनाएं वो दिल का अमीर
ये बात माने मेरी इसकी भी मुझे कोई उम्मीद नहीं
दुनिया कहती छिपकर वार करो पर किसी से न डरो
ऐसे कायरों से निभने की मुझे कोई उम्मीद नहीं
बाप को भी दूँ सन्देश अपनी कलम से
उसका एहंकार हटा पाऊँ इसकी उम्मीद नहीं
मित्र की तरह रखें अपने बेटे को वो
ये बात सीख जाये इसकी उम्मीद नहीं
हर बहन से गुजारिश कर पाऊँ छोटी सी
मान जाये इसकी मुझे कोई उम्मीद नहीं
घर की हो वफादार इज्जत के तराजू पर
उतर पाये खरी इसकी करता उम्मीद नहीं
बदल रहा है जमाना इतनी तेजी सी
बीते वक़्त को थाम लेने की उम्मीद नहीं
हर भाई के नाम सन्देश देता जाऊं
समझ पाये वो दिल से मुझे इसकी उम्मीद नहीं
हर नौकर को बता रहा हूँ बात पते की
तर जायेगा वफ़ा अपनाएगा
मान जा तू ये बात राज की मेरी
सभी के इसको समझ पाने की उम्मीद नहीं
चाणक्य नहीं हूँ मानता हूँ
पर तजुर्बे को शब्दों में लिखना जानता हूँ
जिंदगी उतनी ना जी पाऊं जितनी सोची
क्योंकि अगले पल किसी को उम्मीद नहीं
इसीलिए दे रहा दूसरों को दुआएं लम्बी उम्र की
खुद दुआ बटोरने की अब उम्मीद नहीं
इस मुसाफिर का अगला डिब्बा कोण सा होगा
इस ट्रेन की नजदीक रुकने की उम्मीद नहीं
संगीत की धुनों पर थिरक कर सांसे बढ़ा रहा
नहीं तो इस नीरस जीवन में आगे बढ़ने की उम्मीद नहीं
खुदा के नाम का ही इस जीवन में असली सहारा
नहीं तो बुरे वक्त में परछाई से भी वफ़ा की उम्मीद नहीं
खुदा कर दे माफ़ मेरे अनजाने गुनाहों को
दुनिया लगा ले गले ऐसी अब कोई मुझे उम्मीद नहीं
स्वार्थ के लिए गधे को बनाते देखे बाप मैंने
नहीं तो आदमी से भी बेवजह हमदर्दी की उम्मीद नहीं
ये कड़वे सच का घूंट लिख पा रहा हूँ
हर आदमी के समझ के याद रख पाने की उम्मीद नहीं
बदलते युग में करेंगे तलवार का वार मेरे शब्द
इस युग के लोगों के ये बात जान जाने की उम्मीद नहीं
हाजिर को हुज्जत गैर में तलाश सुना खूब मैंने
इस कहावत के गेहरेपन में किसी के जाने की उम्मीद नहीं
सुखी कर लो जितनो को कर सकते हो
ये गुण लोगों के अपनाने की उम्मीद नहीं
किताबी डिग्री तो कर लेते सब रात जाग जाग कर
जिंदगी जीने की कला जान पाएं सबसे ऐसी उम्मीद नहीं
रटे रटाये तथ्यों पर चलकर सब हो गए बुद्धिमान
खुद के तथ्य बना दे ऐसी किसी से मुझे उम्मीद नहीं
भारत को कोसते पल पल हर पल लोग
विदेशों की भांति लगाव होने की मुझे हर किसी से उम्मीद नहीं
निचोड़ दिया असलता को जिंदगी की
अब इस रस के पीने की किसी से उम्मीद नहीं
सुनकर मेरे शब्दों को आँखें न भर आएं
ऐसी कलाकारी की कोई मुझसे उम्मीद नहीं
इस बात पर थक गयी कलम मेरी
अब तक की आवाज पहुँच जाये जन जन तक इससे ऊपर मुझे कोई उम्मीद नहीं

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कृष्ण मलिक

मेरा नाम कृष्ण मलिक है । अम्बाला जिले के एक राजकीय विद्यालय में व्यवसायिक अध्यापक के रूप में कार्यरत हूँ । योग्यता में ऑटोमोबाइल इंजीनियर हूँ । कम्प्यूटर चलाने में विशेष रुचि रखता हूँ। दिल्ली, मध्य प्रदेश, लखनऊ , हरियाणा , पंजाब एवम् राजस्थान के समाचार पत्र में मेरी रचनाएँ छप चुकी है । दिल्ली की सुप्रसिद्ध पत्रिका ट्रू मीडिया में अगस्त के अंक में मेरी एक रचना प्रकाशित हो रही है । बचपन में हिंदी की अध्यापिका के ये कहने पर कि तुम भी कवि बन सकते हो , प्रेरणा पाकर रचनाओं की शुरुआत की और 14 वर्ष की उम्र से ही कुछ न कुछ तत्व को पकड़ कर लिखना जारी रखा । आज लगभग 12 वर्ष बीत गए एवम् 150 के आस पास आनंद रस एवम् जन जागृति की काव्य एवम् शायरी की रचनाएँ कर चुका हूँ।