लघुकथा

लघुकथा : टूटती शाखें … राखी

मेरे लिए भी 4 राखी मंगवा दीजियेगा ….. 3 राखी डाक से भाई लोगों को भेज दूंगी ….. एक राखी रह जायेगा …. भैया आयेंगे तो बांध दूंगीं …..

देवर को सास बाजार भेज रही थीं , राखी लाने के लिए ….. सुबह से ही ननद हल्ला मचा रही थी …. माँ राखी मंगवा दो … राखी मंगवा भैया को भेज दो …. देर हो जाने से भैया लोग को समय पर नहीं मिलेगा …. बाद में मिलने से क्या फायदा …..
पुष्पा भी कहना चाह रही थी कई दिनों से ….. लेकिन उलझन में थी …. बोले या ना बोले …. शादी होकर आये दो महीना ही तो गुजरा था ससुराल में ….. शादी के बाद पहली राखी थी ….. पति पढ़ाई के लिए दुसरे शहर में रहते थे …. पुष्पा सास ससुर ननद देवर के साथ रहती थी ……

देवर को बाज़ार जाते देख ….. संकोच त्याग बोल ही दी ….. उसके राखी के लिए बोलते सुन …. ससुर जी बोले :- “पहले भी कभी बाँधी हो राखी अपने भाइयों को या ननद की पटदारी कर रही हो …. वो बांधेगी तो तुम भी बांधोगी”

पुष्पा स्तब्ध रह गई ….. क्या अभी अभी ….. मेरे शादी के बाद राखी प्रचलन में आया है …. बोलना चाहती थी लेकिन आवाज घुट कर रह गई …… कहीं शाखें चरमरा गई…..

*विभा रानी श्रीवास्तव

"शिव का शिवत्व विष को धारण करने में है" शिव हूँ या नहीं हूँ लेकिन माँ हूँ

2 thoughts on “लघुकथा : टूटती शाखें … राखी

  • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

    विभा जी , आज के रिश्तों का वर्णन बखूबी कर दिया .सुन्दर रचना .

  • लीला तिवानी

    प्रिय सखी विभा जी, ऐसे में सचमुच शाखें चरमरा जाती हैं. अति सुंदर, मार्मिक व सार्थक रचना के लिए आभार.

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