ग़ज़ल : हुमकते खेलते बच्चों का वो मंज़र दिखाई दे
हुमकते खेलते बच्चों का वो मंज़र दिखाई दे
तसव्वुर मैं करूँ जन्नत का मुझको घर दिखाई दे
बिछड़कर अपनों से कुछ और बढ़ जाती है बीनाई
हज़ारों मील से मुझको तेरी चूनर दिखाई दे
मुहब्बत का असर है और बुजुर्गाें की दुआएँ हैं
मैं तन्हा भी अगर चलता हूँ तो लश्कर दिखाई दे
मेरी आँखों को तुमने चूमकर क्या कर दिया जादू
जिधर भी देखता हूँ दिलरुबा मंज़र दिखाई दे
चमकती ऊँची ऊँची बिल्डिंगों के दरमियाँ उसको
भला कैसे हमारा फूस का छप्पर दिखाई दे
कभी इतरा के आँगन के गुलों की बात मत करना
अगर तुमको कोई बेबस कोई बेघर दिखाई दे
मेरे दीवान की तुम जिल्दे ख़स्ता से अगर निकलो
तो शायद मेरे अन्दर का तुम्हें शायर दिखाई दे
— ए. एफ़. ’नज़र’