ग़ज़ल
मैं तुमको देखता हूँ तो ज़माना भूल जाता हूँ,
मज़ा ये है कि तुमको ही बताना भूल जाता हूँ
शिकायत रोज़ करता हूँ कि तू मिलता नहीं मुझको,
मगर खुद को तेरे काबिल बनाना भूल जाता हूँ
रात भर शोर करते हैं परिंदे घर के आँगन में,
मैं गर चौखट पे इक शमा जलाना भूल जाता हूँ
लगा रखें हैं मैंने आईने घर में बहुत लेकिन,
बस अपनी रूह को शीशा दिखाना भूल जाता हूँ
दुआओं में किसे मैं याद रखूँ और किसे भूलूँ,
इबादतगाह में अपना-बेगाना भूल जाता हूँ
इसका बोझ भी लगने लगा है अब मुझे भारी,
मैं नेकी करके दरिया में बहाना भूल जाता हूँ
— भरत मल्होत्रा
भरत जी बहुत खूब गजल।